भारत के महान् क्रांतिकारी-शचीन्द्रनाथ सान्याल

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जन्म तथा परिवार
शचीन्द्रनाथ सान्याल का जन्म 1893 ई. में उत्तर प्रदेश के वाराणसी (आधुनिक बनारस) में हुआ था। इनके पिता का नाम हरिनाथ सान्याल तथा माता का नाम वासिनी देवी था। शचीन्द्रनाथ के अन्य भाइयों के नाम थे- रविन्द्रनाथ, जितेन्द्रनाथ और भूपेन्द्रनाथ। इनमें भूपेन्द्रनाथ सान्याल सबसे छोटे थे। पिता हरिनाथ सान्याल ने अपने सभी पुत्रों को बंगाल की क्रांतिकारी संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया था। इसी का परिणाम था कि शचीन्द्रनाथ के बड़े भाई रविन्द्रनाथ सान्याल ‘बनारस षड़यंत्र केस’ में नजरबन्द रहे। छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ सान्याल को ‘काकोरी काण्ड’ में पाँच वर्ष क़ैद की सज़ा हुई और तीसरे भाई जितेन्द्रनाथ 1929 के ‘लाहौर षड़यंत्र केस’ में भगत सिंह आदि के साथ अभियुक्त थे।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
शचीन्द्रनाथ का शुरुआती जीवन देश की राष्ट्रवादी आंदोलनों की परिस्थितियों में बीता। 1905 में “बंगाल विभाजन” के बाद खड़ी हुई ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी लहर ने उस समय के बच्चों और नवयुवकों को राष्ट्रवाद की शिक्षा व प्रेरणा देने का महान् कार्य किया। शचीन्द्रनाथ सान्याल और उनके पूरे परिवार पर इसका प्रभाव पड़ा। इसके फलस्वरूप ही ‘चापेकर’ बन्धुओं की तरह ‘सान्याल बन्धु’ भी साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी धारा के साथ दृढ़ता के साथ खड़े रहे। शचीन्द्रनाथ के पिता की मृत्यु 1908 में हो गयी। इस समय उनकी आयु मात्र पन्द्रह साल थी। इसके वावजूद शचीन्द्रनाथ न केवल देश की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध होकर स्वयं आगे बढ़ते रहे अपितु पिता के समान ही अपने तीनों भाइयों को भी इसी मार्ग पर ले चलने में सफल रहे। ‘काले पानी’ की सज़ा के दौरान बारहठ, प्रताप सिंह, छोटे लाल तथा मोतीचन्द्र आदि प्रमुख थे। शचीन्द्रनाथ ने इन्हें साथ लेकर राजस्थान में संगठन के विस्तार के साथ-साथ दिल्ली में भी संगठन के विस्तार का कार्य किया।
गिरफ़्तारी
क्रांतिकारी संगठनों के विस्तार का प्रमुख उद्देश्य देश में दूसरे ‘स्वतंत्रता संग्राम’ को खड़ा करना था। उसके लिए ब्रिटिश शासन के विरुद्ध देशव्यापी सैन्य बगावत करना ज़रूरी था। बहुत कम ही लोग यह जानते हैं कि 1857 के ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ के बाद दूसरे स्वतंत्रता संग्राम की विधिवत तैयारी वर्षों से चल रही थी। अमेरिका व कनाडा में बसे प्रवासी भारतीयों ने ‘गदर पार्टी’ के रूप में इस उद्देश्य को आगे बढ़ाते रहने का काम किया था, तो देश के भीतर बंगाल से पंजाब तक के क्रांतिकारी संगठनों ने इसकी जिम्मेदारी संभाली हुई थी। देश के भीतर इस स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख संयोजक रासबिहारी बोस भी थे और शचीन्द्रनाथ सान्याल इनके दाहिने हाथ बने हुए थे। ‘गदर पार्टी’ और क्रांतिकारी संगठनों ने 1914 से शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेज़ों के फँसे होने के चलते कमज़ोर पड़ रहे अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध हिन्दुस्तानी सैनिकों के विद्रोह के जरिये देश को पूरी तरह से स्वतंत्रत करा लेने का निर्णय लिया हुआ था। 21 फ़रवरी, 1915 को इस सैन्य विद्रोह और स्वतंत्रता संग्राम को आरम्भ करने की तैयारी पक्की कर ली गयी थी। लेकिन गद्दारों और सरकार के भेदियों के चलते इस योजना का पता ब्रिटिश हुकूमत को लग गया। भारी संख्या में ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ़्तारी और दमन का चक्र चलाया गया। इसी के फलस्वरूप शचीन्द्रनाथ सान्याल को 26 जून, 1915 को पकड़ लिया गया।
काले पानी की सज़ा
फ़रवरी, 1916 में उन्हें “काला पानी” की सज़ा सुनाई गयी। इसमें उन्हें आजन्म कारावास एवं सारी सम्पत्ति जब्त करने का आदेश हुआ। उनके छोटे भाई रविन्द्रनाथ सान्याल और जितेन्द्रनाथ सान्याल की भी गिरफ्तारी हुई। रविन्द्रनाथ को दो वर्ष की सज़ा हुई। दो वर्ष बाद भी उन्हें अपने घर में नजरबंद रखा गया। जितेन्द्रनाथ का आरोप सिद्ध नहीं हो सका। बाद में उन्होंने चन्द्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह के साथ काम किया। चार वर्षों तक अंडमान की सेल्युलर जेल में रहने के बाद शचीन्द्रनाथ के मामा ने उनकी माँ की तरफ़ से माफ़ीनामे की अर्जी दी और उस पर कारवाई के बाद शचीन्द्रनाथ सान्याल जेल से छूट कर वापस आ गये। शचीन्द्रनाथ ने अंडमान में क़ैदियों के प्रति किए जाते रहे अमानवीय व्यवहार की चर्चा उस समय के दिग्गज कांग्रेसी लीडरों से की थी।[1]
संगठन का कार्य


विनायक दामोदर सावरकर व अन्य क़ैदियों को छुडाने के लिए शचीन्द्रनाथ ने नागपुर जाकर विनायक दामोदर के भाई डॉक्टर नारायण सावरकर के साथ मिलकर प्रयास किए। किंतु कांग्रेस के नेताओं की उदासीनता के चलते उनके प्रयास व्यर्थ हो गये। अब शचीन्द्रनाथ बिखरे हुए क्रांतिकारी संगठनों को एक जुट करने के प्रयास में पुन: जुट गये। इसके लिए वे अपने पूर्व परिचित जदू गोपाल मुखर्जी, अरुण चन्द्र गुहा, विपिन चन्द्र गांगुली, मनोरंजन गुप्त व नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य से मिले और संगठन के कार्य को एक बार फिर से आगे बढ़ाया। लेकिन बाद में घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने के फलस्वरूप शचीन्द्रनाथ सान्याल को वर्धमान ज़िले के एक गाँव में ईट भट्टे की शुरुआत करनी पड़ी, किंतु उनका यह काम नहीं चल सका। तत्पश्चात् रेल विभाग में नौकरी की। फिर उसे भी त्यागकर जमशेदपुर में लेबर यूनियन का काम संभाला, लेकिन क्रांतिकारी तेवर व संगठन के अभ्यस्त शचीन्द्रनाथ वहाँ पर भी टिक नहीं सके। वे पुन: उत्तर भारत में क्रांतिकारी संगठनों को बनाने के लिए निकल पड़े। उन्होंने पुराने क्रान्तिकारियों के साथ सम्पर्क करने और साथ ही कॉलेज के नौजवानों से भी सम्पर्क साधने का काम जारी रखा। उन्हें यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि युवक हंसी-मजाक व खेलों में ही मस्त रहते हैं। राजनीतिक व साहित्य के प्रश्नों पर वे दिलचस्पी नहीं लेते हैं, जबकि देश आंदोलनों के दौर से गुजर रहा था। गिरफ्तारी का आभास होने पर शचीन्द्रनाथ पुन: कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले आये। लेकिन उसके पहले 1923 तक उन्होंने पंजाब व संयुक्त प्रांत में पच्चीस क्रान्ति केन्द्रों की स्थापना कर दी थी।


पुन: काले पानी की सजा
दिल्ली के अधिवेशन में उन्होंने पार्टी का नाम “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशंन” रखा था। बाद में चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह तथा उनके साथियों ने इसका नाम एवं रूपांतरण “हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक समाजवादी संगठन” के रूप में कर दिया। दिल्ली के इसी अधिवेशन में शचीन्द्रनाथ सान्याल ने देश के बन्धुओं के नाम एक अपील जारी की। इसमें उन्होंने सम्पूर्ण भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य और भविष्य में सम्पूर्ण एशिया का महासंघ बनाने का विचार प्रस्तुत किया। उनके द्वारा “रिवोल्यूशनरी” लिखा गया पर्चा एक ही दिन में रंगून से पेशावर तक बाँटा गया था। इस पर्चे का उद्देश्य यह दिखाना था कि देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी संघर्ष अनिवार्य है और उसके लिए देश में एक बृहद संगठन आवश्यक है। पर्चे को लिखने और वितरित करने के आरोप में उन्हें फ़रवरी, 1925 में दो वर्ष की सज़ा हुई। छूटने के बाद ‘काकोरी काण्ड’ के केस में उन्हें पुन: गिरफ्तार किया गया और दुबारा काले पानी की सज़ा दी गयी।[1]वर्ष 1937-1938 में कांग्रेस मंत्रीमंडल ने जब राजनीतिक क़ैदियों को रिहा किया तो उसमे शचीन्द्रनाथ भी रिहा हो गये। लेकिन उन्हें घर पर नजरबंद कर दिया गया। कठिन परिश्रम, कारावास और फिर चिन्ताओं से वे क्षय रोग से ग्रस्त हो गये। सन 1942 में भारत का यह महान् क्रांतिकारी जर्जर शरीर के साथ चिर निद्रा में सो गया।

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