वीर सावरकर, गांधी जी एवं आर. एस. एस.

वीर सावरकर, गांधी जी एवं आर. एस. एस.

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लेखक स्वर्गीय तुलसीदास चांदना आगरा

लेखक परिचय – लेखक महोदय देष विभाजन की त्रासदी का स्वयं षिकार है आप की उम्र 83 वर्बा है। आपका का जन्म पाकिस्तान के उतर पष्चिम सीमा प्रान्त के छोटे से कस्बे में सन् 1926 में हुआ। आपने देष विभाजन पर देष व जान माल का जो नुकसान हुआ उसकों निकट से देखा है। आप आई आर. आई. के वरिबठ पद से सेवानिवृत हुये है। आजकल आगरा में निवास कर रहेें है। आपने गांधी, जिन्ना, गोलवल्कर, वीर सावरकर, एन. सी. चटर्ची, भाई परमानन्द, आषुतोस लाहिडी, सरदार पटेल, डाॅ. एन. बी. खरे, महात्मा रामचन्द्र वीर आदि को देखा ही नही बल्कि सुना भी है। उस अनुभव के आधार पर आपने यह लेख लिखा है। प्रधान सम्पादक

अनेक लोग आष्चर्य करतें है कि भारत में हिन्दुओं के इतने बहुमत के पष्चात वीर सावरकर एवं गांधी जी जैसे सषक्त नेताओं के रहतें और आर एस एस जैसे विषाल हिन्दु संगठन की उपस्थिति के उपरान्त भी हिन्दुओं ने मुस्लिम लीग की विभाजन की मांग कों बिना किसी युद्ध व संघर्स के कैसे स्वीकार कर लिया।
इन सबका कारण जानने के लिये मैने अनेक पुस्तकों एव प्रख्यात लेखकों के लेखों का अध्ययन किया जैसे कि श्री जोगलेकर, श्री विद्यासागर आनंद, वरिस्ठ प्रवक्ता विक्रम गणेष ओक, श्री भगवान षरण अवस्थी एवं श्री गंगाधर इन्दुलकर। इस प्रकार मेंरा निस्कर्स उनके दृस्टिकोंण एवं मेरे स्व अनुभव पर आधारित है।
सर्वप्रथम मैं नीचे वीर सावरकर व गांधी जी की विषेसताओं और नैतिक गुणों का विवरण देता हूं जो विभाजन के समय भारतीय राजनीति के पतवार थे उस समय के आर एस एस के नताओं का विवरण भी दूंगा। तत्पष्चात मै उन घटनाओं को उद्घृत करूंगा जो उन दिनों घटी जिनकें फलस्वरूप विभाजन की दुर्भाग्य पूर्ण घटना घटी।
वीर सावरकर एक युग दृस्टा थे। बचपन से ही प्रज्वलित ष्षूरवीरता के भाव रखतें थे, अन्यायी अधिकारियों के विरोध के लिये सदैव तत्पर रहतें थे। वह कार्य ष्षैली से भी उतने ही वीर थे जितने कि विचारों से। अपनी मातृभूमि को अंगे्रजों की गुलामी की बेडियों से छुडाने के लियें उन्होने अपनी पार्टी हिन्दू महा सभा के कार्यकर्ताओं के साथ मुस्लिम लीग की भारत विभाजन की नीति का पुरजोर विरोध किया और उनके साथ भारत को अविभाजित रखने के लिये अभियान चलाया। बडी संख्या में भारत एवं विदेषों में बुद्धिजीवी वर्ग ने वीर सावरकर के दृस्टिकोंण हिन्दू रास्ट्रवाद को सराहा जो उन्होने अपनी पुस्तक हिन्दुत्व में प्रकाषित किया था। उन लोंगों ने कहा कि वीर सावरकर कायह दृस्टिकोण साम्प्रदायक न होकर वैज्ञानिक है और यह भारत को साम्प्रदायकता जातीवादी और क्षेत्रवाद से बचा सकता है।
हिन्दू महासभा ने एवं आर एस एस संस्थापकों ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू रास्ट्रवाद को अपनी पार्टी के बुनियादी विचार धारा के अन्तर्गत अपनाया, परन्तु कांग्रेस ने सदैव यही प्रचार किया कि वीर सावरकर एवं हिन्दू महा सभा साम्प्रदायक है। सन् 1940 के पष्चात डां हेडगेवार की मृत्यु के बाद आर एस एस ने भी वीर सावरकर एवं हिंदू महासभा को कलंकित करने का अभियान चलाया। वे वीर सावरकर के अद्भूत एवं ओजस्वी व्यक्तिव को तो हानि नही पहुंचा पाये पर इस प्रचार के कारण बडी संख्या में हिन्दू, हिन्दू महासभा से दूर रहें। दूसरी ओर गांधी जी बिनासंषय के एक जन नेता थे। 25 वर्स के दीर्घ अन्तराल तक वे स्वतन्त्रता के लिये प्रयत्नषील रहें। जबकि वे आलॅ इण्डिया कांगे्रस के प्रारम्भिक सदस्य भी नही थे फिर भी वे पार्टी के सर्वे सर्वा रहे। उन्होनें कभी भी उस व्यक्ति को कांग्रेस के उच्च पद पर सहन नही किया जो उनसे विपरीत दृस्टिकोण रखता था या उनके वर्चस्व के लिये संकट हो सकता था। उदाहरण के लिए सुभास चन्द्र बोस आॅल इण्डिया कांगे्रस के अध्यक्ष चयनित हुये जो कि गांधी जी की अभिलासाओं के विरूद्ध थे। अतः गांधी जी एवं उनके अनुयायियों ने इतना विरोध किया कि उनके समक्ष झुकतें हुये बोस को अपना पद त्याग करना पडा।
गांधी जी कभी भी दृण विचारों के व्यक्ति नही रहें उदाहरणार्थ एक समय में वह मुस्लिम लीग की विभाजन की मांग को ठुकरातें हुए बोलें थे कि ‘‘भारत को चीरने से पहलें मुझे चीरो’’ । वह अपने विचारों में कितने गम्भीर थे यह उनके षब्द ही उनके लिये बोंलेंगे। कुछ ही महीनों के पष्चात 1940 में उन्होने अपने समाचार पत्रों में लिखा कि मुसलमानों को संयुक्तरहने या न रहने के उतने ही अधिकार होने चाहिये जितने कि षेस भारत को है। इस समय हम एक संयुक्त परिवार के सदस्य हैं और परिवार का कोई भी सदस्य पृथक रहने के अधिकार की मांग कर सकता है। दुर्भाग्य से जून 1947 में गांधी जी ने आॅल इण्डिया कांगे्रस के सदस्यों को मुस्लिम लीग की भारत विभाजन की मांग के लिये सहमत कराया तब पाकिस्तान की रचना हुई। इस प्रकार पाकिंस्तान की सृस्टि के फार्मूला (माउन्ट बेटन फार्मूला) को कांगे्रस ने अपना ठप्पा लगाया और पाकिस्तान अस्तित्व में आया।
28 वर्सो के लम्बें समय में मुसलमानों की कोई भी प्रतिक्रिया न होने के पष्चात भी (जिनका स्वतन्त्रता आन्दोलन में नगण्य सहयोग रहा) गांधी जी उन्हें रिझाने में लगें रहे। एक बार तो गांधाी जी ने अंगे्रजों को भारत छोडतें समय भारत का राज्य मुसलमानों को सौंपने तक का सुझाव दे डाला। 1942 में मुहम्मद अली जिन्ना जो मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे को लिखे पत्र में गांधी जी ने कहा ‘‘ सभी भारतीयों की ओर से अंगे्रजों द्वारा मुस्लिम लीग को राज्य सौंपने पर हमें कोई भी आपती नही है। कांग्रेस मुस्लिम लीग द्वारा सरकार बनाये जाने पर कोई विरोध नही करेगी एवं उसमें भागीदारी भी करेंगी।’’ उन्होने कहा कि वह ‘‘ पूरी तरह से गंभीर है और यह बात पूरी निस्ठा एवं सच्चाई से कह रहें है।’’
परन्तु मुस्लिम लीग ने आग्रह किया कि वह पाकिस्तान चाहती है (मुसलमानों के लिये एक अलग देष) और इससे कम कुछ भी नही। मुस्लिम लीग ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में कुछ भी सहयोग नही किया, उल्टें अवरोध लगायें और अपने मुसलमानों के लिये एक पृथक देष की मांग करती रही। उसने कहा कि हिन्दूओं और मुसलमानों में कुछ भी समानता नही है। और वे कभी भी परस्पर षान्ती पूर्वक नही रह सकतमुसलमान एक पृथक रास्ट्र है, अर्थात उनके लिये पृथक पाकिस्तान चाहिये। मुसिलम लीग ने अंग्रेजों से कहा कि वे भारत तब तक न छोडें जब तक कि भारत का विभाजन न हो जाये और मुसलमानों के लिये पृथक देष पाकिस्तान का सृजन न कर जायें।
मुस्लिम लीग के डायरैक्ट एक्षन के कारण भारत में विस्तृत रूप से दंगे हुए, जिसमें हजारों हिन्दू मारें गये और स्त्रियां अपमानित हुई, परन्तु कांग्रेस व गांधी जी मुस्लिम तृस्टीकरण व अंहिसा की नीति के अन्तर्गत चुप ही रहें और कोई प्रतिक्रिया नही दिखाई।
इस प्रकार नेहरू जी व गांधी जी ने पाकिस्तान की मांग के समक्ष घुटने टेक दिये और पार्टी के नेताओं को भारत विभाजन अर्थात पाकिस्तान सृजन के लिये मना ही लिया।
विभाजन के समय पूरे देष में भयंकर निराषा और डरावनी व्यवस्था छा गयी, कांग्रेस के भीतर एक कडवी अनुभूती आ गयी। पूरे देष में एक विष्वास घात, घोर निराषा व भ्रामकता का बोध छा गया। भारतीय रास्ट्रीय कांगे्रस के भावी अध्यक्ष श्री पुरूसोतम दास टंडन के ष्षब्दों में ‘‘ गांधीजी की पूर्ण अंहिसा की नीति ही भारत के विभाजन की उतरदायी थी’’। एक कांग्रेसी समाचार पत्र में लिखा है ‘‘ आज गांधी जी अपने ही जीवन के उदेष्य (हिन्दू-मुस्लिम एकता) की विफलता के मूक दर्षक है।’’
इस प्रकार गांधी जी की तुस्टीकरण वाली नीतियों एवं जिन्नाह की जिद व डायरैक्ट एक्षन का कोई विरोध न करने के कारण गांधी जी एवं उनकी कांग्रेस को ही भारत विभाजन के लिये उतरदायी माना जाना चाहिये।यह था दोनों राजनैतिक पार्टी-हिन्दू महासभा (वीर सावरकर के नेतृत्व में) व कांगे्रस (गांधी जी के नेतृत्व में) का एक संक्षिप्त वर्णन कि कैसे उन्होने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान सृजन की मांग का सामना किया।
इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मुस्लिम लीग ने डायरेक्ट एक्षन लिया जिसका उदेष्य हिन्दूओं को भयभीत करना व कांग्रेस एवं गांधी जी को पाकिस्तान की मांग को मानने के लिये विवष करना था। जिससे हजारों निर्दोस हिन्दूओं की हत्यायें हुई और सैकडों हिन्दू औरतों का अपहरण हुआ।
अनेक लोग कहतें है कि ये सब कैसे हुआ जबकि भारत में इतना बहुमत हिन्दूओं का है।और आर एस एस (रास्ट्रीयस्वयं सेवक संघ) जैसा विषाल हिन्दू युवक संगठन था जिसमें लाखों अनुषासित स्वयं सेवी युवक थे। ये प्रतिदिन षाखा में प्रार्थना करतें थें एवं हिन्दू सुरक्षा के लिये कटिबद्ध थे – उनके लिये अपने प्राण न्यौछावर का संकल्प लिया करते थे। वे हिन्दुस्तान व हिन्दू रास्ट्र स्थापना के लिये प्रतिज्ञा करतें थे।
साधारण हिन्दू को आर एस एस से बहुत आषायें थी पर यह संगठन अपने उदेष्य में पूर्णत विफल रहा और हिन्दूहित के लिये कोई प्रयास नही किया। हिन्दुओं की आर एस एस के प्रति निराषा स्वभाविक है क्योकि आर एस एस उस बुरे समय में उदासीन व मूकदर्षक रही। आज तक वे कोई भी सन्तोसजनक उतर नही बता पाये है कि क्यों उस समय वह सब वारदातों को अनदेखा करती रही ।
उनकी चुप्पी का कारण ढूंढने के लिये हमे यह विदित होना आवष्यक है कि आर एस एस का जन्म कैसे हुआ और नेतृत्व बदलने पर उसकी नीतियो में क्या बदलाव आये। 1922 में भारत के राजनीतिक पटल पर गांधी जी के आने के पष्चात ही मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया। खिलाफत आंदोलन को गांधी जी का सहयोग प्राप्त था- तत्पष्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे प्रारम्भ हो गये तथा नागपुर के कुछ हिन्दु नेताओं ने समझ लिया कि हिन्दु एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। इस प्रकार 28/09/1925 (विजयदषमी दिवस) को डांॅ. मुंजे , डाॅ. हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली। डाॅ. हेडगेवार को उसका प्रमुख बनाया गया। बाद में इस संगठन को रास्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नाम दिया गया, जिसे साधारणतः आर एस एस के नाम से जाना जाता है। इन स्वयं सेवकों को षारीरिक श्रम, व्यायाम, हिन्दू रास्ट्रवाद की षिक्षा एवं सैन्य आदि भी दी जाती थी।
जब वीर सावरकर रतनागिरी में दृस्टि बन्द थे तब डाॅ. हेडगेवार वहां उनसे मिने गये। तब तक वह वीर सावरकर रचित पुस्तक हिन्दुत्व भी पढ चुके थे। डाॅ. हेडगेवार उस पुस्तक के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उसकी सराहना करतें हुये बोले कि वीर सावरकर एक आदर्ष व्यक्ति है।


दोनों ही सावरकर एवं हेडगेवार का विष्वास था कि जब तक हिन्दू , पुरानी रूढिवादी सोच, धार्मिक आडम्बरों को नही छोडेगे तक तक हिन्दू जाति छूत अछूत बनवासी और क्षेत्रवाद इत्यादि में बंटा रहेगा। जब तक वह संगठित एवं एक नही होगा तक तक वह संसार में अपना उचित स्थान नही ले पायेगा। 1937 में वीर सावरकर की दृस्टिबंदी समाप्त हो गई और अब वे राजनीति में भाग ले सकतें थे। उसी वर्स वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डाॅ. हेडगेवार थे।1937 में हिन्दू महासभा का भव्य अधिवेषन कर्णावती अहमदाबाद में हुआ। इस अधिवेषन में वीर सावरकर के भासण को हिन्दू रास्ट्र दर्षन के नाम से जाना जाता है।
1938 में वीर सावरकर द्वितीय बार हिन्दु महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेषन नागपुर मंे रखा गया। इस अधिवेषन का उतरदायित्व पूरी तरह से आर एस एस के स्वयं सेवकों द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डाॅ. हेडगेवार ने किया थाा उन्होने वीर सावरकर के लिये असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर षहर में एक विषाल जुलूस निकाला गया, जिसमें आगें आगेश्री भाउराव देवरस जो आर एस एस के उच्चतम श्रेणी के स्वयं सेवक थे- वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज लेकर चल रहें थें।
1939 के अधिवेषन के लिये भी वीर सावरकर तीसरी बार इसके अध्यक्ष चुने गये थे। यह हिन्दू महासभा का अधिवेषन कलकता में रखा गया। इसमें भाग लेने वालों में डाॅ. ष्ष्यामाप्रसादमुखर्जी, श्री निर्मल चन्द्र चटर्जी (कलकता उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीष), आर एस एस प्रमुख डाॅ. हेडगेवार और उनके सहयोगी श्री एम एस गोलवल्कर और श्री बाबा साहिब गटाटे भी थे।
हिन्दू महासभा व आर एस एस के मध्य कडवाहट
जैसे कि उपर बताया गया हैं कि वीर सावरकर पहले ही उस अधिवेषन के लिये अध्यक्ष चुन लिये गये थे परन्तु हिन्दू महासभा के अन्य पदो के लिये चुनाव अधिवेषन के मैदान में हुए। सचिव के लिये तीन प्रत्याषी थे (1) महाषय इन्द्रप्रकाष, (2) श्री गोलवल्कर और (3) श्री ज्योति ष्षंकर दीक्षित । चुनाव हुए और उसके परिणाम स्वरूप महाषय इन्द्रप्रकाष को 80 वोट, श्री गोलवल्कर को 40 वोट और श्री ज्योतिषंकर दीक्षित को केवल 2 वोट प्राप्त हुए। इस प्रकार महाषय इन्द्रप्रकाष हिन्दू महासभा कार्यालय सचिव के पद पर चयनित घोसित हुये।
श्री गोलवल्कर को इस हार से इतनी चिढ हो गई कि वे अपने कुछ साथियों सहित हिन्दू महासभा से दूर हो गये। अकस्मात जून 1940 में डाॅ. हेडगेवार की मृत्यु हो गई और उनके स्थान पर श्री गोलवल्कर को आर एस एस प्रमुख बना दिया गया। आर एस एस के प्रमुख का पद सभालनें के थोडे समय पष्चात ही उन्होने श्री मारतन्डेय राव जोग को सर संघ सेनापति पद से हटा दिया, जिन्हें श्री हेडगेवार ने आर एस एस के उच्च श्रेणी के स्वयं सेवकों को सैन्य षिक्षा देने के लिये रखा था। इस प्रकार उन्होने अपने ही आर एस एस की पराक्रमी ष्षक्ति को प्राय समाप्त कर दिया।
श्री गोलवल्कर एक रूढिवादी व्यक्ति थे जो पुराने धार्मिक रीतियों पर अधिक विष्वास रखतें थे जहां तक की उन्होने अपने पूर्वजोें के लिये नही वरन अपने जीवनकाल में ही अपना श्राद्ध किया। वे गन्डा ताबीज के हार पहने रहतें थे, जो सम्भवत किसी सन्त ने उन्हे बुरे प्रभाव से बचाने के लिये दिये थे। श्री गोलवल्कर का हिन्दुत्व श्री वीर सावरकर और हेडगेवार के हिन्दुत्व से किंचित भिन्न था। श्री गोलवल्कर के मन में वीर सावरकर के लियें उतना आदर सम्मान का भाव नही था जितना कि डाॅ. हेडगेवार के मन में था। डाॅ. हेडगेवार वीर सावरकर का ेआदर्ष पुरूस मानतें थे और उन्हें प्रात स्मरणीय महापुरूस बतातें थे (एक महान व्यक्ति जिसे हर प्रात आदर से याद किया जाना चाहिये)। यथार्थ में श्री गोलवल्कर इतने दृढ विचार के न होकर एक अपरिपक्व व्यक्ति थे जो आर एस एस जितनी विषाल संस्था का उतरदायित्व ठीक से उठाने के के योग्य नही थे आर एस एस के स्वयं सेवकों की संख्या 1946 में 7 लाख के लगभग थी। श्री गोलवल्कर के आर एस एस का प्रमुख बनने के बाद हिन्दू महासभा एवं आर एस एस के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण बनते गए। यहां तक कि श्री गोलवल्कर वीर सावरकर व हिन्दू महासभा द्वारा चलाये जा रहे उस अभियान की आलोचना करने लगे जिसकें अन्तर्गत वे हिन्दू युवकों को सेना में भर्ती होने के लिये प्रेरित करतें थे ।यह अभियान 1938 से सफलता पूर्वक चलाया जा रहा था और डा हेडगेवार ने 1940 में अपनी मृत्यु तक इस अभियान का समर्थन किया था। सुभास चन्द्र बोस ने भी सिंगापुर से रेडियों पर अपने भासण में इन युवको को सेना में भर्ती कराने के लियें श्री वीर सावरकर के प्रयत्नों की बहुत प्रषंसा की थी। परन्तु श्री गोलवल्कर के उदासीन व्यवहार एवं नकारात्मक सोच के कारण दोनेा संगठनों के सम्बन्ध बिगडतें ही चलें गये।
एक ओर कांगे्रस व गाधी जी ने अंगे्रजों को सहमति दी थी कि उनके भारत छोडकर जाने क ेपहलें भारत की सता की बागडोर मुस्लिम लीग को सौपनें पर उन्हें कोई आपति नही है। दूसरी ओर वे लगातार यह प्रचार भी करतें रहें थें कि वरी सावरकर व हिन्दू महासभा साम्प्रदायिक है। डाॅ. हेडगेवार की मृत्यु के उपरान्त आर एस एस ने भी श्री गोलवल्कर के नेतृत्व में वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा के विरूद्ध एक द्वेसपूर्ण अभियान आरम्भ कर दिया। श्री गंगाधर इन्दुलकर पूर्व आर एस एस नेता का कथन है कि गोलवल्कर ये सब वीर सावरकर की बढती हुई लोकप्रियता विषेसतया महारास्ट्र के युवकों में के कारण कर रहें थे । उन्हें भय था कि यदि सावरकर की लोकप्रियता बढती गयी तो युवक वर्ग उनकी ओर आकर्सित होगा और आर एस एस से विमुख हो जायेगा। इस टिप्पणी के बाद श्री इन्दुलकर पूछतें हैं कि ऐसा करके आर एस एस क्या हिन्दुओं को संगठित कर रही थी या विघटित कर रही थी।
कांग्रेस व आर एस एस वीर सावरकर की चमकती हुई छवि को कलंकित करने में ज्यादा सफल तो नही हो पाये, परन्तु काफी हद तक हिन्दु युवकों को हिन्दू महासभा से दूर रखने में अवष्य सफल हो गये। 1940 में डाॅ. हेडगेवार की मृत्यु के पष्चात आर एस एस के मूल सिद्धान्तों में परिवर्तन आया। हेडगेवार के समय में वीर सावरकर आर एस एस के प्रात स्मरणीय महापुरूसों की सूची में नामांकित थे परन्तु गोलवल्कर के समय में गांधी जी का नाम आर एस एस के प्रात स्मरणीय में जोड दिया गया।
1946 में भारत में केन्द्रीय विधानसभा के चुनाव हुए। कांगे्रस ने प्राय सभी हिन्दू व मुस्लिम सीटों पर चुनाव लडा। मुस्लिम लीग ने मुस्लिम सीटों पर जबकि हिन्दू महासभा ने कुछ हिंन्दू सीटों से नामांकन भरा। हिन्दू महासभा से नामांकन भरने वालें प्रत्याषियों में आर एस एस के कुछ युवा स्वयं सेवक भी थे। जैसे बाबा साहिब गटाटे आदि। जब नामांकन भरने की तिथि बीत गई तब श्री गोलवल्कर ने आर एस एस केइन सभी प्रत्याषियों को चुनाव से अपना नाम वापिस लेने के लिये कहा। क्योंकि नामांकन तिथि समाप्त हो चुकी थी और कोई अन्य व्यक्ति उनके स्थानों पर नामांकन नही भर सकता था। ऐसी स्थिति में इस तनावपूर्ण वतावरण में कुछ प्रत्याषियों के चुनाव से हट जाने के कारण हिन्दू महासभा पार्टी के सदस्यों में निराषा छा गई और चुनावों पर बुरा प्रभाव पडना स्वभाविक था। हिन्दू महासभा के साथ यही हुआ ।
कांग्रेस सभी 57 हिन्दू स्थानों पर जीत गई और मुस्लिम लीग ने 30 मुस्लिम सीटें जीत ली। यथार्थ में श्री गोलवल्कर ने अप्रत्यक्ष रूप से उन चुनावों में कांग्रेस की सहायता की। इन चुनावों के परिणामों को अंग्रेज सरकार ने साक्ष्य के रूप में लिया और कहा कि कांग्रेस पूरी हिन्दू जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करती है और मुस्लिम लीग सभी भारत के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है। अंग्रेज सरकार ने कांगे्रस और मुस्लिम लीग की सभा बुलायी जिसमें पाकिस्तान की मांग पर विचार किया जा सके। उन्होने हिन्दू महासभा को इन बैठकों में आमंत्रित ही नही किया।
जिस समय सभाएं चल रही थी उस समय सम्पूर्ण भारतवर्स में दंगे हो रहें थे विषेस तौर पर बंगाल नोआखाली व पंजाब में जहां हजारों हिन्दुओं की हत्यायें हो रही थी। और लाखों हिन्दुओं ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से अपने घर बार छोड दिये थे। ये सब मुस्लिम लीग व उसके मुसलिम नेषनल गार्ड द्वारा किया जा रहा था। जिससे हिन्दुओं में दहषत छा जाये और उसके पष्चात गांधी जी व कांग्रेस उनकी पाकिस्तान की मांग को मान लेें।
अंग्रेज सरकार, कांग्रेस व मुस्लिम लीग की यह सभाये जून व जूलाई 1947 में षिमला में हुई। अन्त में 3 जुलाई 1947 को उस फार्मूला-प्रस्ताव को मान लिया गया, जिसमें दिनांक14/08/1947 के दिन पाकिस्तान का सृजन स्वीकारा गया। इस बात को कांग्रेस कमेटी व गांधी जी दोनों ने स्वीकृति दीघ्। इस प्रस्ताव को माउण्ट बैटन फार्मूला कहतें है। इसी फार्मूला के कारण भारत का विभाजन करकें 14/08/1947 में पाकिस्तान की सृस्टि हुई।
उस समय 7 लाख सदस्यों वाली आर एस एस मूक दर्षक बनी रही। क्या ये धोखाधडी व देष द्रोह नही था? आज तक आर एस एस अपने उस समय के अनमने व्यवहार का ठोस कारण नही दे पाई है। इतने महत्वपूर्ण विसय और ऐसे कठिन मोड पर उन्होने हिन्दुओं का साथ नही दिया। उनके स्वयं सेवकों से पूछा जाना चाहिये कि उन्होने जब ष्षाखा स्थल पर हिन्दुओं की सुरक्षा व भारत को अविभाजित रखने के लिये प्रतिबद्धता जताई थी प्रतिज्ञाएं व प्रार्थनाए की थी फिर क्यों अपने ध्येय के पीछे हट गये। उन्होने तो हिन्दु रास्ट्रको मजबूत बनाने व हिन्दुओं को सुरक्षित रखने की प्रतिज्ञाएं ली थी। स्पस्ट होता है। कि यह श्री गोलवल्कर के अपरिपक्व व्यक्तित्व के कारण हुआ जो हेडगेवार की मृत्यु के पष्चात आर एस एस के प्रमुख बनें। जिस आर एस एस के पास 1946 में 7 लाख स्वयं सेवकों की ष्षक्ति थी, उसनें न तो स्वयं कोई कदम उठाया जिससे वह मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्षन और पाकिस्तान की मांग का सामना कर सके और ना ही वीर सावरकर व हिन्दु महासभा को सहयोग दिया जो हिन्दुओं की सुरक्षा व भारत को अविभाजित रखने के लिये कटिबद्ध व संर्घसरत थी। कुछ स्थानों पर जहां हिन्दु महासभा ष्षक्तिषाली थी वहां उसके कार्यकताओं ने मुस्लिम नेषलनल गार्ड और मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं को उचित प्रत्युतर दिया लेकिन ऐसी घटनाएं कम ही थी।
अक्टूबर 1944 में वीर सावरकर ने सभी हिन्दू संगठनों की (राजनीतिक और गैर राजनीतिक ) और कुछ विषेस हिन्दु नेताओं की नई दिल्ली में एक सभा बुलाई जिसमें यह विचार करना था कि मुसलिम लीग की ललकार व मांगोें का सामना कैसे किया जाये। इस सभा में अनेक लोग उपस्थित हुए जैसे श्री राधा मुकुन्द मुखर्जी सभा अध्यक्ष पुरी के श्री ष्षंकराचार्य मास्टर तारा सिंह जोगिन्दर सिंह डाॅ. खरे एवं जमुना दास मेहता आदि परन्तु आर एस एस या उसका प्रतिनिधि इतनी आवष्यक सभा में नही पहुंचे। भारत विभाजन के पष्चात भी आर एस एस ने हिन्दू महासभा के साथ असहयोग किया जैसे वाराणसी के विष्वनाथ मन्दिर आन्दोलन समान नागरिक कानून और कूतूब मीनार आन्दोलन के लिये हिन्दू महासभा द्वारा चलाये गये आन्दोलन ।
क्या आर एस एस का संगठन मात्र संगठन के लिये ही था। उनकी इस प्रकार की उपेक्षापूर्ण नीति व व्यवहार आष्चर्यजनक एवं अत्यन्त पीडादायी है। इस प्रकार केवल गांधी जी व कांगे्रस ही विभाजन के लिये उतरदायी नही है। अपितु आर एस एस और उसके नेता भी हिन्दुओं के कस्टों एवं सहानुभूति के विभाजन के लिये उतने ही उतरदायी है।
इतिहास उन लोगों से तो हिसाब मांगेगा ही जिन्होने हिन्दू द्रोह किया, साथ ही उन हिन्दू नेताओं और संस्थाओं के अलमबरदारों केा भी जबाब देना होगा जो उस कठिन समय पर मौन धारण कर निस्क्रय बैठे रहे।
इतिहास गवाह हैं कि केवल वीर सावरकर और हिन्दू महासभा ही हिन्दू हित के लिये संघर्सरत थे। परन्तु आर एस एस के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारणवष एवं हिन्दू जनता का पूर्ण समर्थन न मिलने के कारण वे अपने प्रयत्नों में सफल नही हो पाये। जिससे वे मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को असफल बना सकते।
अन्तत पाकिस्तान बना जो भारत के लिये लगातार संकट और आज तक की राजनैतिक परेषानियों का कारण है। 14/08/1947 को पाकिस्तान का सृजन -हिन्दु व हिन्दुस्तान के लिये एक काला दिवस।

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