देवतास्वरूप -भाई परमानन्द

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लेखक-वैद्य पवन कुमार सुरोलिया बी.ए.एम.एस [आयुर्वेदाचार्य ]संपर्क सूत्र -9829567063

देवतास्वरूप -भाई परमानन्द
जन्म- 4 नवम्बर,1876, निर्वाण-8 दिसम्बर,1947
भाई परमानन्दजी ने 1903 में ही स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त कर ली थी वे चाहते तो सम्मानजनक पद प्राप्त कर अपने परिवार की शानशौकत से लालन पालन कर सकते थे।परंतु उन्हें वैदिक धर्म प्रचार के लिए 1905 में पूर्वी एवं दक्षिणी अफ्रिका जाना पड़ा। जब गांधीजी को पता चला कि भाई परमानन्द अफ्रिका में है तो स्वयं उन्हें अपने निवास पर लाए एवं उन्हें अतिथि बनाकर रखा। महात्मा गांधी भाई परमानंद के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। इस समय तक भाईजी के दो पुत्रियां हो चुकी थीं जिनका लालन-पालन कठिन परिस्थितियों में उनकी पत्नि भाग्यसुधि को करना पड़ा अमेरिका प्रस्थान के दौरान ही सैनफ्रांस्सिको में 15 वर्षीय करतार सिंह सराबा की मुलाकात भाई परमानन्द से हुई थी जो कि भाईजी से अपनी चोट की मलहमपट्टी कराने आया था। भाईजी ने करतार सिंह सराबा को भारत का सही इतिहास बताया। पंजाब का इतिहास भी बताया और गुरु गोविंदसिंह के संघर्ष की अमर गाथा सुनाई। करतार सिंह सराबा अमेरिका छोडक़र देश की आजादी के लिए भारत आ गया एवं 18 वर्ष की आयु में भाई परमानंद जी के साथ लाहौर षड्यंत्र केस में फांसी की सजा से सुशोभित होकर शहीद हो गया।
कुछ लोग स्वर्ग के लिए जीते हैं जबकि कुछ परिवार के लिए जीते हैं। कुछ लोग परिवार एवं समाज के लिए जीते हैं परंतु ऐसे लोग बिरले होते हें जो परिवार को छोडक़र मातृभूमि की सेवा में समर्पित हो जाते हैं। ऐसे ही बलिदानी वंश के पुष्प भाई परमानंद हुए जिन्होंने अपने पूर्वजों की परंपरा को अपनाते हुए अपना पूरा जीवन देश, धर्म एवं स्वतंत्रता के लिए न्यौछावर कर दिया। भाई परमानंद के पितृपुरुष भाई मतिदास सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर के साथ शहीद हुए थे। भाई मतिदास को दिल्ली के चांदनी चौक में 09 नवंबर 1675 को आरे से चीर दिया गया था उन्हें मृत्यु स्वीकार थी, परंतु धर्म परिवर्तन नहीं। भाई मतिदास गुरु तेगबहादुर के प्रधानमंत्री थे। ‘भाईÓ का सम्मान स्वयं गुरुगोबिंद सिंह ने इस परिवार को दिया था। भाई परमानंद के चचेरे भाई बालमुकुन्द छिब्बर को भी लार्ड हार्डिग बम कांड में 8 मई 1914 को 24 वर्ष की उम्र में फांसी दी गई थी। भाई परमानन्दजी का खानदान सेना से संबंधित था। भाई परमानन्दजी ने 1903 में ही स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त कर ली थी वे चाहते तो सम्मानजनक पद प्राप्त कर अपने परिवार की शानशौकत से लालन पालन कर सकते थे। प्रारंभिक स्तर पर वे एवटाबाद में स्कूल में प्रधान अध्यापक हो गए थे। परंतु उन्हें वैदिक धर्म प्रचार के लिए 1905 में पूर्वी एवं दक्षिणी अफ्रिका जाना पड़ा। इसी प्रवस में उनकी मुलाकात महात्म गांधी से हुई। जब गांधीजी को पता चला कि भाई परमानन्द अफ्रिका में है तो स्वयं उन्हें अपने निवास पर लाए एवं उन्हें अतिथि बनाकर रखा। महात्मा गांधी भाई परमानंद के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। अफ्रीका यात्रा के पश्चात भारत वापस लौटने पर वे अंगे्रज सरकार की नजरों में आ गए एवं उन पर मुकदमा चलायागया क्योंकि भाई जी से कई क्रांतिकारी मिलने आते थे। मुकदमें के अंतिम निर्णय में तीन वर्ष की जमानत मांगी गई। भाई परमानंद जमानत नहीं देना चाहते थे परंतु आर्य समाजियों ने जमानत दे दी। इस समय तक भाईजी के दो पुत्रियां हो चुकी थीं जिनका लालन-पालन कठिन परिस्थितियों में उनकी पत्नि भाग्यसुधि को करना पड़ा उनके संघर्ष की अलग कहानी है। भाई परमानन्द ने तीन वर्ष के लिए दक्षिण एवं उत्तरी अमेरिका में जाकर अपना मिशन पूरा करने का विचार बनाया एवं अमेरिका प्रस्थान कर गए। अमेरिका प्रस्थान के दौरान ही सैनफ्रांस्सिको में 15 वर्षीय करतार सिंह सराबा की मुलाकात भाई परमानन्द से हुई थी जो कि भाईजी से अपनी चोट की मलहमपट्टी कराने आया था। भाई परमानंदजी पार्ट टाईम कम्पाउन्डरी का कार्य भी करते थे। भाईजी ने करतार सिंह सराबा को भारत का सही इतिहास बताया। पंजाब का इतिहास भी बताया और गुरु गोविंदसिंह के संघर्ष की अमर गाथा सुनाई। करतार सिंह सराबा अमेरिका छोडक़र देश की आजादी के लिए भारत आ गया एवं 18 वर्ष की आयु में भाई परमानंद जी के साथ लाहौर षड्यंत्र केस में फांसी की सजा से सुशोभित होकर शहीद हो गया। सन 1913 में भाई परमानन्द अमेरिका से भारत लौटे एवं औषधि निर्माण का कार्य प्रारंभ किया परंतु भाईजी से कई लोग मिलने आने से फिर अंगे्रज सरकार की आंखों में आ गए उन्हें शक था कि भाई परमानं जी का औषध निर्माण तो केवल दिखावा है, वास्तव मं वहां बम बनाने की फैक्टरी है। भाईजी का संबंध गदर पार्टी से था। सरकार ने सोचा कि भाई परमानंद वास्तव में क्रांतिकारियों के गुरु हैं अत: उन पर लाहौर षडयंत्र प्रकरण बनाया गया। उन पर आरोप लगाया गया कि उनके द्वारा 1857 की क्रांति की तरह राष्ट्रव्यापी योजना बर्ना गई एवं देश की विभिन्न छावनियों में सैनिकों को विद्रोह के लिए तैयार किया गया। भाई परमानन्द जी को गिरफ्तार कर लिया गया एवं बे-सिर-पैर के आरोप जड़ दिए गए। मुकदमा सात- आठ माह चला एवं भाई परमानंदजी को अन्य 17 साथियों के साथ फांसी की सजा सुना दी गई। इनमें युवा करतार सिंह सराबा भी था जिसका उल्लेख पहले किया गया है। फांसी की सजा होने के एक दिन पहले भाई परमानंद की सजा अंडमान के कालेपानी में आजन्म कारावास में बदल दी गई। अंडमान की सेल्यूलर जेल में उनको अनेक यातनाएं दी गई जिसका उल्लेख उनकी जेल में लिखी पुस्तक ‘आप बीतीÓ में मिलता है। इसी जेल में वीर सावरकर जी भी थे जो भाई परमानंद के साथ थे। भाई परमानंद जी की पत्नि लाहौर की गलियों में अंधेरे मकान में 3 बिच्चियों के साथ किसी तरह गुजर बसर कर रही थीं। मात्र 17 रुपए मासिक वेतन पर वे शिक्षण का कार्य कर रही थीं। भाईजी की पत्नि से मिलने सीएफ एण्ड्रज आए। उन्होंने भाई परमानंद के पत्र देखे जो जेल से पत्नि को लिखे गए थे। उन्होंने भाईजी के सम्मान पत्र भी देखे जो उन्हें अफ्रिका में मिले थे। श्री एंड्रज द्रवित हो गए और महान शिक्षाविद् भाईजी के परिवार की ऐसी दुर्गति जो ब्रिटिश सरकार ने की थी तथा जिसमें किसी भ्ीा मानवीयता का परिचय नहीं मिलता था। श्री एंड्रज ने भाईजी के प्रकरण का अध्ययन किया एवं पाया कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप बनावटी थे। उन्होंने अंगे्रज सरकार से भाईजी की रिहाई की मांग की। महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में लिखा कि ‘भाईजी का संबंध हिन्दुस्तान के उन राष्ट्रभक्तों से है जिनकी संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही है और जिन्होंने हिन्दुस्तान की सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बना रखा है। मुझे पहली बार वे अफ्रिका में मिले थे। वे सत्य एवं सज्जनता के प्रतिरूप हैं। उनकी बातों का मेरे मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे लगभग एक माह तक मेरे यहां प्रतिष्ठित अतिथि रहे। बहुत से मसलों पर मेरी उनसे बातचीत हुई। मैं विश्वास करता हूं कि उनकी राष्ट्रभक्ति राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए हिंसा के प्रयोग को बुरा मानती है। दक्षिण अफ्रिका से वे इंग्लैंड गए। वहां पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के हिंसावादी स्कूल से उनका सम्बन्ध हो गया। फिर भी उनके अंदर सत्य की अग्रि पहले के समान भडक़ती है। मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि सरकार ने ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के साथ साधारण अपराधी का सा व्यवहार किया है। उनका दोष मानकर भी उन्हें कालापानी का दण्ड देना सख्त गलत था। गांधी जी की लेखनी रंग लाई एवं सी.एफ. एण्डूज व मदनमोहन मालवीय के अथक प्रयत्नों से भाई परमानंदजी को रिहा कर दिया गया। 20 अप्रैल 1920 को भाई परमानंद जी लाहौर पहुंचे। भाईजी की रिहाई का व्यापक स्वागत हुआ। लाहौर में अपना निवास खोजते-खोजते अपने परिवार से मिले तो परिवार की स्थिति देखकर द्रवित हो गए। उनकी पत्नि भाग्यसुधि ने अपार कष्ट सहे जिसका अलग ही इतिहास है। बड़ी बच्ची सोमा का निधन तभी हो चुका था जब भाईजी जेल में थे। भाईजी की पत्नि को कोई नौकरी देने को तैयार नहीं था, मदद को भी तैयार नहीं था क्योंकि वे क्रांतिकारी की पत्नि थीं। 3 छोटी-छोटी बच्चियों के साथ गुजर-बसर मुश्किल काम था। परंतु भाग्यसुधि ने बड़े धैर्य एवं साहस से कठिन समय गुजरा। धन्य हैं भाई परमानंद एवं उनका परिवार जो देश के लिए, मातृभूमि के लिए समर्पित हुए। भाई परमानन्द जी शिक्षाविद् थे इसलिए उन्हें लाहौर में कौमी विद्यापीठ का कुलपति बनाया गया जिसमें उन्होंने अवैतनिक सेवा की। भगत सिंह तथा राजगुरू भाईजी के शिष्य थे। भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह से भाईजी के पारिवारिक सम्बन्ध थे । एक बार भागत सिंह भाईयजी से मिलने आए और भाईजी से कहा कि मैं आपको गुरू मानता हूं आशीर्वाद चाहता हूं। भाईजी ने आशीर्वाद तो दिया ही साथ ही साथ यह भी कहा कि जिस मार्ग पर पग उठाओ उससे कभी पीछे नहीं हटना। यह बहुत आवश्यक है। अपने सिद्धांत पर चट्टान के समान डटे रहो। भगतसिंह ने इस पाठ को कभी नहीं भुलाया और वे भारत के इतिहास पुरुष बन गए। भाईजी के लाहौर पहुंचने पर उनके प्रशंसकों ने उनका सम्मान करना चाहा एवं लगभग 10 हजार रूपए की सम्मान राशि भेंट करना चाही जिसकी आज की कीमत 10 लाख से भी अधिक है। परंतु भाई परमानन्द ने विनमग्रतापूर्वक यह राशि लेने से इंकार कर दिया भाईजी का कहना था कि देश के लिए किए गए बलिदान के मातृभूमि के लिए समर्पित भाव से किए गए, किसी कीमत एवं पुरस्कार के लिए नहीं। कहा है ऐसे लोग? धन्य है, भारत भूमि जहां ऐसे देवता स्वरूप व्यक्तित्व अत्पन्न हुए। आजादी के जंग के दौरान उनकी दो पुत्रियां स्वर्गवासी हो गई, पत्नि भाग्यसुधि का निधन 1 जुलाई 1932 को हो गया। कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति से उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया तथा वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने। वे विभाजन के घोर विरोधी थे। उनकी घोषणाएं आज भी याद की जाती हैं कि विभाजित भारत समस्याओं से ग्रस्त रहेगा। वे भाई परमानन्छ जिन्हें अण्डमान की जेल हिला नहीं सकी। 1947 के विभाजन की पीड़ा सहन न कर सके एवं 8 दिसम्बर 1947 को जालन्धर में ब्रह्मलीन हो गए।

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