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वृद्धिवाधिका वटी
वृद्धिवाधिका वटी एक आयुर्वेदिक औषधि है। वृद्धिवाधिका वटी का प्रयोग कर रोगों का इलाज किया जाता है।आयुर्वेद में वृद्धिवाधिका वटी के बारे में बहुत सारी अच्छी बातें लिखी हुई हैं। वृद्धिवाधिका वटी के इस्तेमाल से आप एक-दो नहीं बल्कि कई रोगों का इलाज कर सकते हैं।वृद्धिवाधिका वटी अन्डकोशों के विकार सम्बन्धी विभिन्न रोगों के उपचार के लिए काम आती है। हर्निया आदि के उपचार के लिए यह दी जाने वाली यह एक प्रमुख औषधि है। अंडकोष विकार में वृद्धिवाधिका वटी से फायदा वृद्धिवाधिका वटी अन्डकोशों में नये और पुराने सभी प्रकार की वृद्धि सम्बन्धी रोगों को नष्ट करती है। इस वटी के सेवन से हर्निया (आंत्रवृद्धि) रोग में लाभ मिलता है। अण्डकोश में वायु भर जाना, दर्द होना और नये दूषित रस का उतरना, रक्त व जल भरना आदि रोगों में वृद्धिवाधिका वटी लाभकारी होती है।यदि अण्डकोश में भरा हुआ जल अधिक पुराना हो गया हो तो यह वटी उसमें विशेष लाभ नहीं देती है। इस कारण अण्डवृद्धि का अनुभव होते ही इसका सेवन शुरु कर देना चाहिए जिससे आगे बीमारी और ना बढ़े।कदम्ब के पत्तों पर या अरण्ड के पत्तों पर घी का लेप लगा लें। इसे हल्का गरम करके अण्डकोश पर लपेटकर कपड़े से बाँध दें। इससे अंडकोष बढ़ने की शुरुआती अवस्था में ही बहुत अधिक लाभ मिलता है। भैषज्य रत्नावली भा.प्र.
वृद्धिवाधिका वटी के घटक
वृद्धिवाधिका वटी में निम्न द्रव्य हैं:-
क्र.सं.
घटक द्रव्य
उपयोगी हिस्सा
अनुपात
१शुद्ध पारद १भाग
२शुद्ध गन्धक १ भाग
३लौह भस्म.१भाग
४ ताम्र भस्म१ भाग
५कांस्य भस्म १भाग
६ वंग भस्म १भाग
७.शुद्ध हरताल १भाग
८शुद्ध तूतिया १ भाग
९शंख भस्म १ भाग
१०.कपर्दक भस्म १ भाग
११. शुण्ठी १ भाग
१२मरिच १ भाग
१३पिप्पली १ भाग
१४ हरीतकी १ भाग
१५.विभीतकी १ भाग
१६आमलकी १भाग
.१७चव्य १भाग
१८वायविडंङ्ग १भाग
१९.विधारामूल १ भाग
२०कचूर १भाग
२१पिप्पलीमूल १ भाग
२२पाठा १ भाग
२३हपुषा १ भाग
२४वचा कन्द १भाग
२५.इ]लायची बीज१भाग
२६देवदारु सार १ भाग
२७.सैंधव लवण १ भाग
२८ कालानमक १भाग
२९.विड् लवण १ भाग
३०सामुद्र लवण १भाग
३१ सांभर लवण १भाग
हरीतकी क्वाथ
मर्दनार्थ1.
वृद्धिनाशक रस
द्रव्य-शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक 5-5 तोले तथा सुवर्णमाक्षिक भस्म 10 तोले लें।विधि-पहले पारद गन्धक की कजली करके फिर माक्षिक भस्म मिलायें। फिर एण्ड तैल से 1 दिन और हरड़ के क्वाथ मे ।दिन खरलकर 2-2 रती की गोलियाँ बनाना।(व.यो.मा.)
मात्रा-१से २गोली, दिन में दो बार
अनुपान-कर्णस्फोटा (कमफु-कानफोड़ू) का रस, बलातैल, चने का क्या यवक्षार या एरण्ड सैल मिला हुआ हरड़ का जाय।
वक्तव्य-कर्णस्फोटा को मराठी में कनपटी, कान फोड़ी। गुजराती में कलियों। काठियावाड़ में कागडालियों । बंगाल में सतफटकी,नयाफटकी, तमिल में कोटावन, मुरकोट्टन। तेलुगु में ज्योतिष्मति, तिगे और लेटिन में कार्डियोस्पर्मक हेलिफेयम् कहते हैं। यह वर्षायु और बहु वर्षायु वनस्पति है शाखायें पतली और कोमल होती है। पान शिकोणाकार, शिखा भाग
में अति तीक्ष्ण और आधार स्थान में सकड़े होते हैं। फूल सफेद, 3 से 44 मिलीमीटर (लगभग 8 ) लम्बे और घोड़े फूलों के कार तरें आते हैं। बीज चिकने 4 से 6 मि.मी. व्यास के गोलाकार, काले, सूक्ष्म, सफेद, ददयाकार और उपकवच वाले होते हा उपयोग-यह रसायन वृषणवृद्धि और अन्य वृद्धि का नाश करता है। शान्तिपूर्वक दीर्घकाल तक सेवन करना चाहिये। कोहवद्धता हो
तो हरड़ का क्वाथ या एरण्ड तैल का अनुपान रूप से उपयोग करना चाहिये। मूतशुद्धि न होती हो, तो यवक्षार मिश्रित हरड़ का साथ
लेना चाहिये ऐसे समय में कानफोड़ू क्वाथ विशेष हितावह है।
वृद्धिहरी वटिका।
द्रव्य-कुन्दरु गोंद, कांटे वाले करंज के सेके हुए फलों का मगज और काला नमक 4-4 तोले, इन्द्रजी, बायविडंग, छिलका निकाला हुआ लहसुन, इन्द्रायण की जड़, अजमोद और रुमी मस्तंगी ये 6 औषधियां 2-2 तोले, भुनी हॉग और ढोकामाली (नाड़ी हिंगु)11तोला लें।
विधि-सबके कपड़े चूर्ण को मीकुंवार के रस में 1 दिन मर्दन करके 2-2 रती की गोलियां बना लेयें
(स्व. श्री पं. यादव विकमजी पचा)र्
मात्रा-१से २गोली, दिन में २ बार जल के साथ।उपयोग-यह वटिका वातज और कफज वृद्धि रोग, कमी विकार और उदरपोड़ा को निवृत्त करती है।पटिका वातज और कफज वृद्धि रोग, कृमि विकार और उदरपोशीबाली रोग, कृमि विकार और उ दर पीड़ा को निवृत करती है।