लेखक-वैद्य पवन कुमार सुरोलिया बी.ए.एम.एस [आयुर्वेदाचार्य ]संपर्क सूत्र -9829567063
गर्भाशय अर्बुद
[यह लेख अभी प्रारंभिक अवस्था में है अभी इसमे कई महत्वपूर्ण संशोधन होने है ]
आयुर्वेदिक चिकित्सा शास्त्र में गर्भाशयर्बुद की गणना किस व्याधि मेें की जानी चाहियें ? क्योकि स्वतन्त्र रूप में गर्भाशय का अर्बुद या गांठ नाम की व्याधि निदानादि ग्रन्थेा में लिखित नहीं पायी जाती है कि शरीर के किसी भी अंग में उत्पन्न हो सकता है इस कारण गर्भाशय मेें अबुर्द का होना असम्भव नहीं ।
गात्र प्रदेशे क्कचिदेव दोषा:
समुच्छ्रितामांसमसृक्प्रदूष्य
वृत्तंस्थिर मन्दरूजं महान्तक
नल्य मूलं चिरवृद्घयपाकम॥
कुर्वन्ति मांसोच्छ्रय मत्य गांधं
तदर्बुदंशास्त्र विदोवदन्ति
वातेन पित्तेन कफेन चापि
रक्तेन मांसेन च मेदसा च॥
शरीर के किसी भाग में कुपित हुए रोष मांस तथा रूधिर को दूषित कर गोल स्थिर मन्द वेदना युक्त बउी और वृहत्तत जड वाली बहुत दिनों में बढने वाली और न पकने वाली बडी मांस ग्रन्थि होती है उसे शास्त्रकार अर्बुद कहते है जो कि वात पित्त कफ रक्त मांस और मेद से सम्बन्धितहुआ करती है।
फिर भी भली भांति विचार करने से स्पष्टïतया निर्णय हो जाता है कि गर्भाशय के अर्बुद को स्वतन9 रूप से आयुर्वेद में वर्णन किया गया है
जिसे निम्न रोगों को गर्भाशय अर्बुद [कैंसर ] में समाविष्ट करने पर विचार करना चाहिए
1-सोम्यार्बुद [रसोली]
निम्न प्रयोग गर्भाशय केंसर गर्भाशय दुष्टïाबुर्द पर बहुत बार प्रयेाग कर के देखा गया है। किन्तु बहुत जीर्ण व उपद्रवयुक्त हो जाने पर लाभ कम होता है।
नागभस्म ३ रत्ती
स्वर्णवगं २ रत्ती
मुक्ताशुुक्ति ४रत्ती
ताम्र भस्म १ चावल
–इन सबकी मात्रा प्रति दिन मधु के साथ खिलानी चाहिये और मुर्दासंग ४ रत्ती को १ माशे के साथ मिला कर अन्दर लगाना चाहिये।
2-दुष्टार्बुद
अ-रक्त गुल्म
ब-वाताष्ठïीला
स-नागोदर
3-कर्कटार्बुद [योनि कन्द]
अ-गर्भाशय ग्रीवार्बुद
ब-बीजाशयार्बुद [ओर्वी अर्बुद ]
स-योन्यार्बुद
द-गर्भाशयर्बुद
पाश्चात्य चिकित्सक गर्भाशयस्थ रोगों के अन्तर्गत गर्भाशय में अबुद्र गांठ होना भी मानते हे ओर यह ग्रन्थि मेदा ,पूय , शोणित द्वारा उत्पन्न होती है, इनकी आकृति सुपारी से लेकर नारियल बाराबर तक हेा सकती है और यह गर्भाशय की ग्रीवा मुख तथा अन्तर्भाग में एक या कई एक ग्रन्थियों की उत्पत्ति हुआ करती ै परन्तु जो ग्रन्थि गर्भाशय के मुख या ग्रीवा में होती है उनको आकर छोटा होगा और जो गांठ गर्भाशय के अन्तर्भाग मे होगी उसका आकर बडा होगा जो कि नाभि स्थान के ३-४ अंगुल नीचे दबा कर देखने से बहुत बउी ओर गडी सूजन सरीखा स्पष्टï प्रतीत होती है। तथ माकि स्राव भी हेाता रहता है परे भली भांति नहंी होता वेदना और रूकावट के साथ थोडा २ हुआ करता है इस व्याधि से पीडित स्त्री को देखने से कई एक वेद्य रक्तगुल्म वाताष्ठïीला नागोदर इत्यादि समझ कर चिकित्सा करने लगते है और अपनी अल्पज्ञता वश रूगण को लाभान्वित हेाने से वंचित रखते है इस लिये भली भांति निर्णय कर के चिकित्सारम्ीा करने में ही सफलता प्राप्त हो सकती है।
नोट-डॉक्टरों के समान यूनानी चिकित्सा कभी गर्भाशय गत अनेक व्याध्यिां मानते है
अब यह प्रशन उठता है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा शास्त्र में गर्भाशयर्बुद की गणना किस व्याधि मेें की जानी चाहियें ? क्योकि स्वतन्त्र रूप में गर्भाशय का अर्बुद या गांठ नाम की व्याधि निदानादि ग्रन्थेा में लिखित नहीं पायी जाती है कि शरीर के किसी भी अंग में उत्पन्न हो सकता है इस कारण गर्भाशय मेें अबुर्द का होना असम्भव नहीं ।
गात्र प्रदेशे क्कचिदेव दोषा:
समुच्छ्रितामांसमसृक्प्रदूष्य
वृत्तंस्थिर मन्दरूजं महान्तक
नल्य मूलं चिरवृद्घयपाकम॥
कुर्वन्ति मांसोच्छ्रय मत्य गांधं
तदर्बुदंशास्त्र विदोवदन्ति
वातेन पित्तेन कफेन चापि
रक्तेन मांसेन च मेदसा च॥
शरीर के किसी भाग में कुपित हुए रोष मांस तथा रूधिर को दूषित कर गोल स्थिर मन्द वेदना युक्त बउी और वृहत्तत जड वाली बहुत दिनों में बढने वाली और न पकने वाली बडी मांस ग्रन्थि होती है उसे शास्त्रकार अर्बुद कहते है जो कि वात पित्त कफ रक्त मांस और मेद से सम्बन्धितहुआ करती है।
फिर भी भली भांति विचार करने से स्पष्टïतया निर्णय हो जाता है कि गर्भाशय के अर्बुद को स्वतन9 रूप से आयुर्वेद में वर्णन किया गया है जिसे योनिकन्द व्याधि मान लेना अनुचित न होगा इसलिये योनिकन्द पर विचार करना आवश्यक प्रतीत हेाता है।
योनिकन्द निदानम
दिा स्वप्रनदति क्रोधा द्व यायामदति मैथुनात।
क्षताच्च नख दन्तोद्यैर्वाताद्या: कुपिता यथा॥
दिन में सोने अत्यन्त क्रोध करने अत्यन्त परिश्रम से मैथुनाधिक्यता से नख दन्तादि के क्षत से वातादि दोषों के कुपित होने से ।
योनिकन्द लक्षणम,
पूय शोणित संकाशं लकुचाकृति सन्निभम। जन यन्ति यदा योनौ नाम्रा कन्द स योनिज:॥
राध रक्त के समान बडहल के फल की समान आकार वाली गांठे योनि मे उत्पन्न हो इसको योनिकन्द कहते है।
वातादि भेद ।
रूक्ष विवर्ण स्फटित वातक तं विनिर्दिशेत।
दाह राग ज्वर युतं विदयात्पित्तात्मक तु तम॥
तिल पुष्प प्रतीकाशं कण्डू मन्तं कफात्मकम
सर्व लिंग समायुक्त सन्निपातात्मक वदेत।
रूखा, विवर्ण, फटा सा वातज और दाह ललागी ,ज्वर युक्त हो उसे पत्तिज तथा तिल के पुष्प के समान खुजली युक्त हो उसे कफज और सब लक्षणों सहित हो उसे सन्निपातज कहते है।
अब हमारे कतिपय वैद्यय बन्धुओं की यह धारणा हो सकती है कि गर्भाशय का अर्बुद तो गर्भाशय ही में होगा ओैर योनि कन्द तो योनि योनि मार्ग में ही होगा अर्थात गर्भाशय के अर्बुद को याेिन कन्द तो योनि माग्र में ही होगा अर्थात गर्भाशय के अबुर्द को योनि कन्द कैसे मान लिया जाय?
इसका निर्णय गर्भाशय तथा योनि की स्थिति पर विचार करने से ही सहज में हो जा सकता है इसलिये आयुर्वेद के शारीराध्याय पर दृष्टिïपात करना अत्यावश्यक है।
योनि तथा गर्भाशय स्वरूप
शंख नाभ्याकृति योनि स्त्रयावर्तासा च कीर्तिता।
तस्यास्तृतीये त्वावर्ते गर्भाशय्या प्रतिष्ठिïता॥
स्त्री की योनि शंखनाभि कके सदृश तीन आवत चक्र वाली है जिसके तीसरे आवर्त में गर्भ शय्या की स्थिति है,अर्थात गर्भाशय योनि के अन्तर्गत माना गया है जिसे योनि का एक भाग मानना ठीक होगा इसलिये गर्भाशय की भी गणना योनि में कर लेना असंगत न हेागा जिस प्रकार शरीर कहने से सर्वागों का बोध हो जाता है तथा हाथ कहहने से भुजा टिहुनी कलाई करल इयादि को का बोध हो जाता है और उदर कहने से उदर के अन्तर्गत यकृत प्लीहादिकों का बोध होता है उसी प्रकार योनि से भी उसके प्रत्येक अंगों का बोध किया जा सकता है।
दिने व्यतीते नियतं संकुचत्यम्बुजं यथा।
ऋतौ व्यतीते नार्यास्तु योनि संब्रियते तथा।
दिन व्यतीत हेा जाने पर जिस प्राकर निश्चय कमल संकुचित हो जाता है उसी प्रकार ऋतु व्यतीत हो जाने पर स्त्री की योनि संकुचित हो जाताी है यहां पर तो स्पष्टï ही गर्भाशय ही को योनि माना गया है क्योंकि ऋतु काल व्यतीत हेा जाने पर गर्भाशय ही का मुख बन्द होता है इस समय के पश्चात गर्भाशय वीर्य ग्रहण नहीं करता ।
आशा है
4-विद्रधि
अ-गर्भाशय विद्रधि
ब-बीजाशय विद्रधि
स-योनि विद्रधि
द-गर्भाशय ग्रीवा विद्रधि