लेखक-वैद्य पवन कुमार सुरोलिया बी.ए.एम.एस [आयुर्वेदाचार्य ]संपर्क सूत्र -9829567063
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आंत्र कैंसर और आयुर्वेद
[यह लेख अभी प्रारंभिक अवस्था में है अभी इसमे कई महत्वपूर्ण संशोधन होने है ]
आयुर्वेदिक अवधारणा में, ‘चरक’ और ‘सुश्रुत संहिताओं’ कैंसर भड़काऊ या गैर भड़काऊ सूजन के रूप में वर्णित है और ‘ग्रंथी’ (लघु सूजन) के रूप में या ‘्रह्म्ड्ढह्वस्रड्ड’ (प्रमुख सूजन) या तो उल्लेख किया है. [अनुसार 1 ] तंत्रिका तंत्र (वात या वायु), शिरापरक प्रणाली (पित्त या आग) और धमनी प्रणाली (कफ या पानी) तीन आयुर्वेद की मूल बातें और सामान्य शरीर समारोह के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं.
आंत के कैंसर अलग अलग तरह के होते है
1-बद्धगुदोदर -
यह बड़ी आंत का भयंकर कैंसर है इस रोग पच्च कर्म और पञ्च गव्य से इलाज के द्वारा इलाज हो सकता है पच्च कर्म और पञ्च गव्य आयुर्वेद की महत्वपूर्ण देन है
बद्धगुदोदर लक्षण –
वसवराजीय ग्रन्थ कर ने कहा है की –
यस्यान्त्रमन्नैरुप्लेपिभिर्वा बालाश्मभिर्वा पिहितं यथावत्!
संचीयते तस्य मलस्दोष:शनै:शनैस्संकरवच्च नाड्याम !!
निरुध्यते तस्य गुदे पुरीषम निरेति कृच्छ्रादतिचाल्पमल्पम !
हृन्नाभिमध्ये परि वृधिमेति तस्योदरं बद्ध गुदं वदन्ति !!
अन्न परिणाम क्रम में अन्न का सारभूत पदार्थ मुह,अन्ननलिका ,आमाशय ,क्षुद्रांत,बृहदन्त्र,तथा गुदा इनसे रसवाहिनी एवं रक्त वाहिनियो में चला जाता है तथा धातु परिणाम क्रम में शरीर की बलवृधि का कारण बनता है फलत:बृहदन्त्र,तथा गुदा मार्ग में केवल किट्टभाग ही बचाता है अहिताहर से बृहदन्त्र उपलेपी अर्थात चिक्कण पदार्थ से या अपक्व अन्न से या छोटे छोटे सिकता रूपी पत्थरो से शनै: शनै: भरता जाता है यह क्रिया शनै: शनै: होती जाती है ,फलत:बृहदन्त्र मार्ग तंग होता जाता है गुदावालियो में मल का संचय होता जाता है अधिक प्रवाहण व प्रयास से मल थोडा थोडा बाहर आजाता है समय बिताने पर नाभि और ह्रदय प्रदेश में भी मल संचय हो जाता है जिससे उदर परिवृध हो जाता है अत: इसे बद्धगुदोदर कहते है
चिकित्सा –
1-ब्रम्बदेव गुटिका
2-छतोदर [आंत का कैंसर ]-
यह बस्ति प्रयोग से अच्छा हो सकता है भोजन में कांच
भोजन में कांच ,लकड़ी ,लोहा,तथा हड्डी जैसी चीजे पेट में उतर जाने से नकुली चीजे आंत में चुभ जाने से बहुत लम्बे समय के बाद वहा छेद कर देती है धीरे-धीरे वहा सूजन आती है तथा दर्द शुरू हो जाता है समय बीत जाने पर सेप्टिक होकर छेद पड जाता है यह कैंसर स्थानिक है ओपरेशन इसमे बहुत लाभ प्रद होता है समय पर ओपरेशन कराने से रोगी बच जाता है
क्षतोदरं कारण. व लक्षण-.
शल्यं तथाऽन्नोपहितं यदन्त्रं भुक्तं भिनत्त्यागतमन्यथा वा ॥
तस्मात्क्षतान्त्रात्सलिलप्रकाश : स्नाव : स्नवेद्वैदतस्तुगुभूय : ॥
नाभेरधश्चोदरमेति वृद्धिं निस्तुद्यते दाल्यति चातिमात्रम् ॥
एतत्परिस्नाव्युदरं प्रदिष्टम्
वसवराजीय ग्रन्थ कर ने कहा है की -छतोदर की उत्पति के लिए आंतो में क्षत का होना आवश्यक है तीक्ष्णाग्र शल्य का अन्न का अन्ननलिका में प्रवेश होने के पश्चात अन्न से आच्छादित आंत्र जम्भाई व हिक्का के कारण झटके से छेदित हो जाती है इस छिद्र से अन्न रस क्षरित होकर गुदामार्ग द्वारा बाहर आता रहता है अतिसंचय से नाभि के नीचे कुक्षी वृद्धि को प्राप्त होती है तथा इसमे सुई चुभोने जैसी पीड़ा तथा कभी कभी फट जाने जैसी पीड़ा होती है ये छतोदर के लक्षण है
चिकित्सा –
1-ब्रम्बदेव गुटिका
3- गुल्मार्बुद-
आंत्र में होने वाला गुल्म रोग आगे चलकर आंत को सुखा देता है इतब सूखी हुई आंत को काट कर बाहर निकाल देने से रोगी लगभग ठीक हो जाता है परन्तु सका सही इलाज पञ्च कर्म बस्ति है गुल्म रोग स्वतन्त्र रोग है परन्तु गुल्म रोग की उपेक्षा व सही समय पर चिकित्सा नहीं करने कैंसर का रूप ले लेता है असाध्य गुल्म ही कैंसर है तथा रक्त गुल्म भी कैंसर है अब स्त्रियों के होने वाले रक्त गुल्म को गर्भाशय अर्बुद मानना चाहिए परुशो के होने वाले रक्त गुल्म आंत्र कैंसर मानना चाहिए
गुल्म वसवराजीय ग्रन्थ कर ने कहा है की –
गुल्म रोग निदान
दुष्टा वातादयोह्यत्य्ररथं मिथ्याहार विहारत:!
कुर्वन्ति पञ्चधा गुल्मं कोष्ठान्त ग्रन्थि रूपिणी !!
मित्या आहार-विहार से वातादि दोष अत्यंत दूषित होकर कोष्ठ ग्रन्थिरुपी पञ्च प्रकार के गुल्म को उत्पन्न करते है
गुल्म रोग के भेद –
तेषाम् पञ्च विधं स्थानं पार्श्वहृन्नाभिवस्तय:!
सशोणीतै:पृथग्द्वन्दव संघातै:केचिदष्टवा!!
गुल्मो के पांच उत्पति स्थान दोनों पार्श्व ,ह्रदय ,नाभि तथा बस्ति होते है वे संख्या में 1-वातज 2-पित्तज 3-कफज 4-संनिपातज 5-वातश्लेष्म 6-वातपित्तज 7-पित्तश्लेष्मज 8-रक्तज इस तरह आठ होते है
[गुल्मार्बुद ]असाध्य गुल्म रोग के लक्षण –
संचित: क्रमशो गुल्मो महावास्तु परिग्रह:!
कृतामूल:शिरानद्धो यदाकूर्म इवोंनत:!!
दौर्बल्यारूचि हृल्लासकासछर्द्यर्रति ज्वरे:!
तृष्णातन्द्राप्रतिश्यायेर्युज्यते न स सिध्यति !!माधव निदान
गुल्म क्रमश: प्रवृद्ध होकर सम्पूर्ण उदर में व्याप्त हो जाता है धातुवो को आश्रित करके शिरावो में व्याप्त होकर कूर्मप्रिष्ठवत उभरकर दौर्बल्य ,अन्नद्वेष,हृल्लास ,कास ,वमन,असंतोष,ज्वर ,तृषा ,तन्द्रा ,और प्रतिश्याय इत्यादि लक्षणों से युक्त होकर प्रवृद्ध होकर असाध्य हो जाताहै
गृहीत्वा स ज्वरं श्वासच्छर्द्य तीसारपीडितं!
ह्रिन्नाभिहस्तपादेषु शोथ:क्षपति गुल्मिनम !!
श्वासश्शूलम पिपासन्नाविद्वेषो ग्रन्थिमूढ़ता!
जायते दुर्बलत्वं च गुल्मिनाम मरणाय वै:!!
वमन विरेचन से पीड़ित गुल्म रोगी के ह्रदय, नाभि,हस्त और पाद में शोथ उत्पन्न होने पर तथा ज्वर से पीड़ित होने पर रोगी मर जायेगा श्वास,शूल ,तृषा ,अन्न द्वेष ,गुल्म ग्रन्थि मूढ़ हो जाना रोगी का दुर्बल हो जाना ये सभी मरणसूचक ह
वसवराजीय ग्रन्थ कर ने कहा है की –
ैपुंसाम च रक्त घातेन रक्तापिताधिके क्वचित !
पित्तगुल्मं यथा चिन्हं तथैव स्याद्रुजाधिकम !!
पुरुष को रक्ताघात से कभी -कभी रक्तपित्त की अधिकता से रक्त गुल्म होकर पित्त गुल्म के लक्षणों से युक्त रहता है
…पुंसाम चेत्तत्क्षनेत भवेत् !
पुरुष के रक्त गुल्म की तत्काल चिकित्सा करे