लेखक-वैद्य पवन कुमार सुरोलिया बी.ए.एम.एस [आयुर्वेदाचार्य ]संपर्क सूत्र -9829567063
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आयुर्वेद में केन्सर है क्या?
[यह लेख अभी प्रारंभिक अवस्था में है अभी इसमे कई महत्वपूर्ण संशोधन होने है ]
आयुर्वेद महान है यह बात अकाट्य सत्य है ,क्यूंकि यह ज्ञान ऋषियों -आचार्यों एवं संहिताकारों की विद्वता से सदैव पुष्पित एवं पल्लवित होता रहा हैढ्ढ आयुर्वेद में वर्णित चिकित्सा के सिद्धांत जितने शाश्वत हैं उतने ही शास्त्रोक्त औषधियों के गुण धर्म भी ,बस फर्क इतना है कि जिन बातों को हम आज के वैज्ञानिक शोध द्वारा प्रमाणित कर रहे हैं, वे शायद सदियों पूर्व ही हमारे आचार्यों की दिव्य नजरिये से पुष्ट थी। आयुर्वेद में कैंसर का जिक्र बहुत पहले से मिलता है। शरीर में होने वाली गांठे, जिन्हें करकट अर्बुद कहा जाता है, उसे आयुर्वेद में कैंसर की श्रेणी में लिया जाता है। सामान्यत: आयुर्वेद में केन्सर अर्बुद को माना जाता है परन्तु और भी कई रोग है जिसका समावेश इसमे किया जा सकता है कई रोग ऐसे भी जो बाद में केन्सर में परिवर्तित हो जाता है उसका वर्णन वाद में किया जायेगा अभी अर्बुद के विषय में ही विचार किया जायेगा अर्बुद का अर्थ है गोल पर्वत की तरह आकृति इसका मतलब यह हुवा की शरीर के किसी भी भाग में गोल उभरी हुई उभार युक्त विकृति को अर्बुद कहते है अर्बुद की व्युत्पत्ति अर्व हिंसायाम मानी गई है इससे यह संकेत मिलाता है की अर्बुद एक घातक रोग है अर्बुद एक प्रकार का उत्सेद प्रधान[उभारयुक्त या उठा हुवा ,कठिन ,अपाकी विशेषत:मांस अधिष्ठित हो होता है जो स्थिर होता है समय के साथ बढ़ता जाता है यह अर्बुद तालु,कपाल,नासा,नेत्रवर्ममें भी हो सकता है ऐसा सुश्रुत व अष्टांग संग्रह में भी वर्णन मिलता है अर्बुद में प्राय: मांस की विकृति होती है इसमे एक देशीय वैकारिक वृद्धि होकर अर्बुद रोग उत्पन्न हो जाता है
भेद [प्रकार]-
अ-अर्बुद को दोष दूष्यं के अनुसार 6 प्रकार का माना गया है
1- वातज
2- पित्तज
3- कफज
4- रक्तज
5- मांसज
6- मेदोज
ब-संख्या के अनुसार
1-अर्बुद
2-अध्यर्बुद-पूर्व उत्पन हुए अर्बुद पर दूसरा अर्बुद हो जाय तो अध्यर्बुद कहलाता है
3-द्विअर्बुद -जो एक साथ या क्रम से दो अर्बुद हो जाय तो उसे द्विअर्बुद कहलाता है
3-आधुनिक आयुर्वेदज्ञो के अनुसार स्थान भेद से
निदान -अर्बुद के निदान का वर्णन नहीं मिलता कुछ विद्वान् शोथ के निदान को ही अर्बुद के निदान को समझने को कहते है अत: अर्बुद के निदान भी शोथ का निदान मानना चाहिए चरक ने ग्रन्थि और अर्बुद को निदान और चिकित्सा में समान माना है
ग्रंथ्यर्बुदानाम च यतो विशेष:प्रदेश हेत्वाकृति दोष दूश्ये:!
ततश्चिकित्सेत भिशगर्बूदानि विधानवित ग्रन्थि चिकित्सेन !! च.चि.12/87
उत्सेध सामान्यत: चरक ने शोथ के अध्याय में ही गलगंड ,ग्रन्थि ,अर्बुद आदि का समावेश किया है अत: शोथ के सामान्य निदानो को ही इनका भी निदान समझना चाहिए शोथ के निदानो के अतिरिक्त मांस और मेद को दुष्ट करने वाले निदान भी अर्बुद के निदानो में समाविष्ट कर सकते है
विशिष्ठ निदान –
1-वातज ,पितज,तथा कफज अर्बुद के निदान दोष प्रकोपक ही होते है
2-रक्तार्बुद के निदान रक्तदुष्टिकर तथा मांस वाह स्रोतों दुष्टि कर निदान समझने चाहिए
3-मांसार्बुद में भी मांस वह स्रोतों दुष्टि कर व मांसदुष्टि निदान समझने चाहिए मुष्टि प्रहार को भी मांसार्बुद का कारण माना है मेदोज अर्बुद में मेदोधातुदुष्टिकर एवं मेदोवह स्रोतों दुष्टि कर निदान समझना चाहिए
4–ज्वर की उपेक्षा – साधारण भाषा में बुखार ,ताप चढऩा कहते है चरक ने ज्वर की चिकित्सा लंघन बतायी है फिर भी जनता जल्दी रोग को मिटाने की अज्ञानता में पड़ गई है आँख को बंधन -ज्वर को लंघन जो बुखार बिना कुछ खर्च किये मिटने वाला है उसी रोग पर जनता हजारो खर्च करती है आखिर में कई बार ज्वर बिगडऩे से मृत्यु तक प्राप्त हो जाती है और नहीं तो कम से कम कष्टदायी रोग को जरुर प्राप्त कर लेता है आचार्य सुश्रुत ने कहा है
रक्त निष्ठी वनं दाहो मोहच्छर्दन-विभ्रमौ!प्रलाप: पिडका तृष्णा रक्त प्राप्ते ज्वरे नृणाम !! [सुश्रुत]ज्वर तब धातुवो में प्रवेश करता है तब कफ के साथ खून आता है और दाह होती है तथा बेहोसी आ जाती है वमन होती है और भ्रम हो जाता है प्रलाप[उल्टी सुलटी बकवास ]करने लग जाता है शरीर के ऊपर पीडिका [गांठे]होती है प्यास लगाती है यह सब लक्षण ज्वर रक्त धातु में प्रवेश करता है तब होते है
ज्वर बिगडऩे से और विरुध भोजन करने से शरीर में खराबी होती है वह अत्यंत धीमी गति से होती है द्बठ्ठ खराबी का परिणाम रोगी को बहुत लम्बे समय के बाद मालूम पड़ता है विरुद्ध भोजन और ज्वर से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होता है जब रोगी को इस परिवर्तन का ध्यान आता है तब तक इस विषेले रासायनिक परिवर्तन सारे शरीर पर अपना प्रभाव जमा लेता है इस स्थिति में वैद्य को निदान करना कठिन हो जाता है ज्वर उतरने की विधिया जो विदेशी ढंग से चल रही वो शरीर के ताप को उतारने तक का काम भर है जो ताप उतरने से ज्वर नहीं उतरता जैसा की आचार्य माधव ने कहा है की –
स्वेदावरोध: संताप: सर्वान्ग ग्रहणं तथा युग पद्यत्र रोगे च स ज्वरो व्यपदिश्यते [माधव]
पसीना रुक जाना ,शरीर,इंद्रिय और मन में संताप होना जब अंग जकड जाता है ये सब लक्षण एक साथ जिस रोग में हो उसे ज्वर कहते है सिर्फ शरीर ठंडा होने से ज्वर उतर गया है ऐसा समझना गलती है
स्वेदा लघुत्वं शिरस: कंडू:पाको मुखस्य च !क्षवाशुश्चान्न्लिप्सा च ज्वर मुक्तस्य लक्षणं !![सुश्रुत ]पसीने का आना ,शरीर का हल्का बनना,सिर में खुजली आना मुख पाक होना ,छीकआना ,अन्न खाने की इच्छा होना ये सब लक्षण एक साथ होने पर माना जाना चाहिए कि ज्वर ठीक हो गया नहीं शरीर में [ह्य.द्य.द्ग.]एस.एल.इ. ,कैंसर,ब्लड कैंसर जैसी कई गंभीर व्याधिया उत्पन्न हो सकती है
सामान्य संप्राप्ति –
प्रकुपित वातादि दोष शरीर में मांस धातु में अधिष्ठान करके उसकी वृद्धि [शोथ]कर देते है और यह वृद्धि नियत या अनियत प्रदेश में गोल ,स्थिर ,अल्परुजा ,महान ,कठिन ,चिरकालिक ,वर्धक ,अपाकी होती है
संप्राप्ति घटक –
1-दोष -त्रि दोष
2- दुष्य-मुख्यत:रस , रक्त ,मेद ,मांस परन्तु कभी -कभी आस्थि और मज्जा भी प्रभावित होती है
3-स्रोतस -रक्त वह ,मांसवह ,मेदोवह बाद में अन्य स्रोतस भी प्रभावित होते है
4-स्रोतोदुष्टि लक्षण -संग
5-आम पक्वाशयोत्थ व्याधि है-
शरीर में जाठराग्नि मंद ,विषम ,तीव्र हो जाती है तभी शरीर में सामता शुरू हो जाती है देहधारियो का आहार पाक का पहला हिस्सा जिसको हम प्रथम धातु रस कहते है वह रस धातु जाठराग्नि बिगड़ जाने से कच्ची रह जाती है कच्ची रहने से धातु का रंग ,स्वाद ,और प्रवत्ति विपरीत हो जाती है इसको आयुर्वेद में साम [स+आम ]कहते है जब शारीर में आम है तो रस के पीछे वाली 6 धातुये बिगड़ जाती है और जब धातुवो में आमता प्रवेश कर जाती है तो तब धातुवो का मल भी बिगड़ने लग जाता है धातु बिगड़ने से पहले दोषों का बिगड़ना शुरू हो जाता है बिना दोषों के बिगड़े धातु नहीं बिगड़ सकती जाठराग्नि है क्या शरीर से बाहर जगत में जो हमारे चूल्ले मे अग्नी जलती है वह अग्नि रूक्क्ष है उससे अलग हमारे शरीर में रहने वाली जाठराग्नि प्रवाही अग्नि है जो शरीर में पाचन क्रिया का समान कार्य करके पुरी आयुष्य की ऊष्मा को कायम रखता है आयुर्वेद में वह जाठराग्नि है आयुर्वेद में तीन प्रकार की जाठराग्नि मणि गयी है
1.सप्त धातु में रहने वाली अग्नि को धातु अग्नि कहते है 2.पञ्च महाभूतो में रहने अग्नि को भूताग्नि कहते है देह में अलग अलग हिस्सों में रहने वाली अग्नि 5 अग्नि -पाचक,रंजक ,रोचक ,आलोचक ,भ्रान्जक -स्थान भेद और लक्षण भेद से इसका नाम अलग अलग है लेकिन वह एक ही जाठराग्नि के प्रकार ह