लेखक-वैद्य पवन कुमार सुरोलिया बी.ए.एम.एस [आयुर्वेदाचार्य ]संपर्क सूत्र -9829567063
स्वतंत्रता के स्वप्न द्रष्टा-लालाहरदयाल
[जन्म 14 अक्तूबर, 1884 बलिदान-3 मार्च, 1939]
भारत की आजादी के लिए लाला हरदयाल, जो 14 अक्तूबर, 1884 को दिल्ली के एक कायस्थ परिवार में जन्मे थे, ने प्राथमिक कक्षाओं से स्नातक तक की परीक्षाओं में न केवल सर्वथा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे वरन् बी.ए. में पूरे प्रांत की परीक्षा में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। फिर 1905 में सरकार ने जब इन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की तो आक्सफार्ड के “सेन्ट जान्स कालेज” में अध्ययनरत रहे। उन दिनों लन्दन में पं. श्यामजी कृष्णा वर्मा ने एक लाख रुपए लगाकर “इण्डिया हाउस” स्थापित किया। हरदयाल जी भी वहां जाने लगे। उन्हीं दिनों भारत में स्वदेशी आंदोलन तथा स्वदेशी वस्तु-बहिष्कार आंदोलन की भी आंधी चली तो क्रांतिकारी युवक बम-रिवाल्वर जुटाकर अंग्रेजों और अंग्रेजों के पि_ू अधिकारियों का शिकार करने और फांसी चढ़ने लगे। घर-घर, गली-गली में “वन्देमातरम्” का मंत्र गूंजने लगा।सन् 1907 में पंजाब के सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय को अंग्रेजों ने सुदूर मांडले (बर्मा-ब्राहृदेश) में नजरबंद कर दिया। इस दमनचक्र के प्रभाव से हरदयाल जी आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से लन्दन आकर भाई परमानंद से मिले और कहा, “मैं पढ़ाई छोड़कर भारत में विप्लवी योजना कार्यान्वित करना चाहता हूं। भाई परमानंद ने समझाया कि पढ़ाई पूरी कर लो, पर लाला हरदयाल ने पढ़ना छोड़ ही दिया और पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा से मिलकर एक संस्था बनाई- “पालिटिकल मिशनरीज सोसाइटी”। वर्मा जी 1907 में एक मासिक पत्र “सोशियोलोजिस्ट” प्रकाशित करते थे उसमें लाला हरदयाल लेख लिखने लगे। आजादी प्राप्त करने हेतु एक त्रिसूत्री योजना बनाई, जिसके तीन सूत्र थे- प्रबोधक, संहारात्मक (ध्वंसकारी) तथा रचनात्मक”। रचनात्मक का अर्थ था, भारत को अंग्रेजों से अंतिम संग्राम हेतु तत्पर करना। वे लन्दन से भारत आ गए। लाला हरदयाल अभी 23 वर्ष के भी नहीं हुए थे कि लन्दन से सपत्नीक पटियाला लौटने पर अपनी पत्नी सुन्दर रानी से बोले, “रानी! अब मेरे संन्यास लेने का समय आ गया है। तुम गर्भवती हो सन्तानवती होकर उसी से मन बहलाना, गृहस्थी संभालना और उसे पढ़ाना-लिखाना। मैं चला अपने सुनिश्चित-संकल्पित क्रांति पथ पर। अब कब मिलना होगा, कुछ ठीक नहीं। तुम न तो मेरी प्रतीक्षा करना, न चिन्ता। संन्यासी निर्बन्ध, मोह मुक्त होता है, वह कहीं भी रहे, परिवारजन को इसकी परवाह क्यों हो? यदि हमारा अपने परिवार से ही रिश्ता बना रहा तो संन्यास कैसा?” सच ही सुन्दर रानी गर्भवती थीं। वे तो मौन रहीं, क्योंकि वे पति के साथ विदेश-प्रवास करके वहां देखती रही थीं कि पति ने कौन-सा कर्म-पथ चुना है, उसके लिए वर्षों से मानसिक तैयारी करते रहते थे। विदेश में आक्सफोर्ड में सुन्दर रानी के साथ रहकर ही उन्होंने राजनीति, इतिहास तथा अर्थशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। घर-परिवार-पत्नी को छोड़कर पटियाला से दिल्ली आए। वे न पत्नी से मिले और न बेटी का ही मुंह देखा। वे भारत में सरकारी शिक्षा-संस्थाओं और सरकारी अदालतों के बहिष्कार पर भी जोर देते थे। स्वदेशी प्रचार, लोक-सेवा तथा अंग्रेजी के स्थान पर अपनी मातृभाषा के प्रयोग का उन्होंने आह्वान किया, लेकिन ब्रिटिश सरकार उन्हें जेल भेजने के बहाने खोज रही थी। फलत: जब वे पंजाब और कांगड़ा के अकाल पीड़ितों की सेवा कर रहे थे, पंजाब सरकार ने उनका गिरफ्तारी वारण्ट जारी कर दिया। तब लाला लाजपतराय ने हरदयाल जी पर भारत छोड़ने का दबाव डाला “कहीं अज्ञातवास करो।” अपने संपर्कित युवकों का सम्पर्क दिल्ली के मास्टर अमीरचंद से करा हरदयाल जी पेरिस (फ्रांस) पहुंच गये, जहां वे मादाम कामा, पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा और सरदार सिंह राणा से मिलते रहे। यहां तय हुआ कि इटली के जेनेवा शहर से एक पत्र “वन्देमातरम्” निकाला जाये और हरदयाल जी उसका सम्पादन करें। “वंदेमातरम में बड़े उत्तेजक, उग्र और विप्लव-वह्नि सुलगाने वाले लेख छपते थे। 1910 में फिर अमरीका आ गये और सेनफ्रांन्सिस्को (केलिफोर्निया) में शिक्षक हो गये। तत्पश्चात् 2 वर्ष बाद स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत तथा हिन्दू दर्शन के प्रोफेसर नियुक्त हुए। उधर दिल्ली में इनके मित्र और साथी मास्टर अमीर चंद ने रासबिहारी बोस से रिश्ता जोड़ा। वायसराय लार्ड हार्डिंग पर 23 दिसम्बर, 1912 को चांदनी चौक से निकल रहे जुलूस पर बम फेंका। इस घटना पर हार्डिंग बम केस चला। 11 लोग गिरफ्तार हुए जिनमें अवध बिहारी, मास्टर अमीर चंद, बालमुकुन्द और वसन्त विश्वास को दिल्ली में फांसी दी गई। 1915 में लाहौर केस में ही 18 विप्लवी फांसी पर झूले, अनेक काले पानी की कैद काटने अंदमान पहुंचे। भाई परमानन्द को जन्म कैद हुई। लाला हरदयाल भी पकड़े गये। पर जब देखा कि अंग्रेज उनकी जान लेने पर उतारू हैं तो जमानत देकर अमरीका से स्विट्जरलैण्ड और फिर जर्मनी पहुंचे। फिर फ्रांस तथा मेसोपोटामियां में अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे। पर जब जर्मनी ने हाथ खींच लिया तो स्वीडर चले गए। वहां से 1927 में लन्दन आ गये। इन दिनों ब्रिटिश म्यूजियम के पुस्तकालय में बैठकर “हिन्दुत्व” पर ग्रंथ लिखा जो दुर्भाग्यवश भारत में प्रचारित नहीं हो सका। 1938 में भाई परमानन्द और दीनबंधु एंड्रयूज की प्रचेष्टा से उन्हें अंग्रेजों ने भारत लौटने की स्वीकृति प्रदान की किन्तु वह भारत न आकर फिलाडेलफिया चले गये और वहीं से अपने भारत लौटने तथा क्रांति ज्वाला धधकाने की योजना बनाकर एक व्यक्ति दिल्ली रवाना किया। लेकिन उन्हें न तो भारत से कोई उत्तर प्राप्त हुआ और न ही वह धन, जो उन्हें राह खर्च के लिए भेजा गया था। अंग्रेज जान रहे थे कि यदि यह क्रांतिकारी जीवित रहा तो महायुद्ध में ब्रिटिश हितों को घातक क्षति पहुंचा सकता है। अत: षडंत्र रच कर लाला हरदयाल को अंग्रेजों ने जहर दे दिया, जिससे यह महान क्रांतिवीर फिलाडेलफिया में ही 3 मार्च, 1939 को बलिदान हो गया। वस्तुत: जीता है वह जो मरता है स्वदेश के लिए।