क्रांति की उपासिका – सती रामरखी

क्रांति की उपासिका – सती रामरखी

You are currently viewing क्रांति की उपासिका – सती रामरखी

लेखक-वैद्य पवन कुमार सुरोलिया बी.ए.एम.एस [आयुर्वेदाचार्य ]संपर्क सूत्र -9829567063

क्रांति की उपासिका – सती रामरखी
[सुहागरात को ही भाई बालमुकुन्द ने पत्नी रामलखी को बता दिया मैं क्रांतिकारी हूं मेरा लक्ष्य भारत माता को स्वतंत्र करवाना है। मैंने बड़ों को आज्ञा के आगे सिर झुकाते हुए विवाह किया है। भाई जी के विचारों को सुनकर पत्नी रामलखी ने देश की आजादी के लक्ष्य के प्रति कार्यों में सहयोग करने का निर्णय लिया। पतिदेव को उस काल कोठरी में जिस प्रकार जीवन निर्वाह करते देख आयी थी, उसी प्रकार उन्होंने अपने आपको ढाल लिया। सबसे निचले खण्ड में पृथ्वी पर कम्बल बिछाकर सोती।ब्रिटिश सरकार ने भाई बालमुकुन्द का शव परिवारजनों को नही सौंपा भाई बालमुकुन्द की फांसी के बाद उन्होंने न एक दाना मुंह में डाला, न एक घूंट पानी ही पिया। इसी प्रकार अारह दिन बीत गये। उन्नीसवें दिन वे कोठरी से बाहर आयीं। शुद्ध जल से स्नान किया, स्वच्छ वस्त्र पहने और आंगन में पल्थी लगा कर बैठ गयीं। नेत्र बंद थे। हाथों की हथेलियां गोद में थीं। उसी स्थिति में उन्होंने प्राणों को खींचा और क्षणमात्र में वे अनन्तकाल के लिये पतिदेव के वामांग में जा विराजीं।] देवी रामरखी जैसी रूपवती थी, वैसी ही सुसंस्कारवती भी। पहले-पहल ससुराल में डोली से उतरी थी। रंगीन सपनों की सुनहरी छाया में खोयी हुयी रामरखी यह न जान पायी कि उनका अठारहवां बसंत पतझड को साथ लिये अवतरित हुआ। सरल हृदय जीवन संगिनी को पाकर भाई बालमुकुंद निहाल हो गये थे और मनचाहा पति पाकर रामरखी न्यौछावर। विवाह हुये एक साल ही हुआ कि लार्ड हार्डिग बम मुकदमा में भाई बालमुकुंद गिरफ्तार हो गये। मुकदमा कानूनी तौर पर साबित भले ही न हुआ हो किंतु मास्टर अमीरचंद्र और उनके साथी अवधबिहारी, बालमुकुंद और बसंत कुमार को फांसी की सजा सुना दी गयी। गर्मियों के दिन थे। रामरखी देहात में थी और भाई बालमुकुंद दिल्ली जेल में। मुकदमा चल रहा था। रामरखी पतिदेव के दर्शन को छटपटा उठीं और दिल्ली जाने को तैयार हो गयीं। सास ने डांटा- डोली से उतरे चार दिन भी नहीं हुये और लगी इधर-उधर घूमने। कोई क्या कहेगा? किंतु रामरखी अपने संकल्प पर दृढ रहीं। ससुर ने समझाया- मेरे रहते तुझे चिंता नहीं करनी चाहिये। वह जल्दी ही छूटकर आ जायेगा। किंतु बहू का आग्रह ससुर से टालते न बना। उसे लेकर वे दिल्ली पहुंचे। अत्यधिक प्रयास करने पर केवल पंद्रह मिनट का समय भेंट के लिये प्राप्त कर पाये। बेटे की दशा देखकर पिता का हृदय क्रन्दन कर उठा किंतु वे आंखों ही आंखों में आंसू पी गये। बहू को अवसर देने के लिये उन्होंने पीठ घुमा ली। बहू ने घूंघट खोला, पलकें उंघारी। अन्तस्तल की वेदना साकार होकर नेत्रों में तिर आयी। तंग घुटन्ना, मैली-कुचैली बनियाइन, गड्ढे में धंसी हुयी आंखें, बढी हुयी दाढी मूंछ, पसीने से चिपटा पाषाणवत् अचल-अडिग शरीर देखते ही रामरखी की चेतना ने अंगडाई ली- यही पतिदेव हैं जिनके स्वागत के लिये गोले पर गोले दगते थे। एक यह बम का गोला है- जिसके फूटते ही उन्हें हथकडियों और बेडियों में जकड दिया गया। नेत्रों ने उतरकर वार्लालाप जब कण्ठ तक आ गया तो लाज का घूंट निगलते हुये रामरखी ने पूछा- जब से आये तब से इस कोठरी में रह रहे हैं स्वामी? हां प्रिये शुष्क कण्ठ से वे बोले- हम भाग्यहीनों के लिये ही इन कोठरियों का निर्माण हुआ है। कदाचित् इन कोठरियों की भयानकता यमराज देख पाते तो उन्हें ईर्ष्या होने लगती। काश मेरा नरक भी इतना भयानक होता।जेठ-अषाढ के उमस भरे दिन, सीलन की गंध और मच्छरों की भिनभिनाहट से रामरखी की चित्त व्याकुल हो उठा। उनसे रहा न गया पूछ बैठीं- चारपायी नहीं मिली? ओढते-बिछाते क्या हैं?यहां चारपायी की आवश्यकता ही कैसी? यही कम्बल जिस पर मैं बैठा हूं, बिछौना है। दूसरे कम्बल की ओर इशारा करते हुये उन्होंने कहा-यह ओढता हूं और यह तसला सही एक पात्र है। कैदीगण जब मौज में आते हैं तो यही ताल मिलाने का काम देता है। और जब आपस में कहासुनी हो जाती है तो यही हथियार बन जाते हैं। तब तक समय हो चुका था। कर्कश पदचाप करता कोई आ धमका-निकलो बाहर। रामरखी के साहस का बांध टूट गया। सिर टेक कर वे घूमी ही थीं कि भाई बालमुकुंद ने कामना की- घूंघट की लाज रखना देवी। रामरखी की कातर दृष्टि पीछे की ओर घूमी और प्रार्थना में अश्रुबिंदु ढुलकाकर लौट गयी। बहू को साथ लेकर उनके ससुर जेल से बाहर निकल आये।महान् आघातों को पीकर तुच्छ चोटों पर अपना संतुलन खो बैठने वाली नारी दारुण झंझावतों से होड लेने को प्रस्तुत हो गयी। काल के कराल थपेडों में रामरखी अविचल रहीं, अडिग रहीं। उनका हृदय पवित्रता का सागर था। पति को ही सब कुछ मान चुकी थीं। घर के सभी छोटे-बडे सुविधानुसार छतों पर सोते किंतु पतिदेव को उस काल कोठरी में जिस प्रकार जीवन निर्वाह करते देख आयी थी, उसी प्रकार उन्होंने अपने आपको ढाल लिया। सबसे निचले खण्ड में पृथ्वी पर कम्बल बिछाकर सोती। मच्छर भिनभिनाते तो वे समझतीं कोई क्रान्ति के गीत गा रहा है और चेतावनी दे रहा है- ऐ मूर्ख ऐसी कोठरियों में कम्बल के ऊपर बरसात के दिनों में नींद नहीं आया करती।मच्छरों ने काट-काट कर उनके शरीर को सुजा डाला किंतु उन्होंने अपना ख्याल नहीं बदला। श्रृंगार से उन्हें अरुचि पहले ही हो गयी थी। एक धोती पर ही निर्वाह करने लगी। फूल सा शरीर सूख कर कांटा हो गया था। छ: महीने मुकदमा चला, लेकिन रामरखी के विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आया। उस दिन शाम को जब सभी लोग रोने-चिल्लाने लगे किंतु रामरखी पतिदेव के चिन्तन में ही लीन रहीं। जब उन्होंने पतिदेव की फांसी की सजा सुनी तो साहस समेटकर कोठरी से बाहर निकल आयीं और छाती पर हाथ रखकर कलप उठीं।पतिदेव का अंतिम दर्शन पाने के लिये पुन: जेल पहुंची। जी चाहा सारे उद्गार निकाल लूं, किंतु हाय रे दुर्भाग्य, बात करने का भी अवकाश न मिल पाया। रामरखी ने आसरा न छोडा। पांच मिनट का समय मिला। कुछ बातें कण्ठ तक आयीं किंतु शुष्कता के कारण जिह्वा तक न पहुंच पायीं। नेत्रों में अंर्स्वेदना हिलोरें मार रही थीं। वे जड थीं, मूक थीं। तभी जंगले के पीछे से आवाज आयी। उन्हें धीरज बंधाते हुये भाई बालमुकुंद कह रहे थे- संसार असार है देवी। जन्म होना ही मृत्यु की घोषणा है। जो आया है उसे जाना पडेगा। चाहने पर भी कोई किसी का साथ नहीं दे पाता। अकेला आया था, अकेला ही जा रहा है। तुम अपने को सौभाग्यवती समझो और गर्व करो कि मैं स्वतंत्रता के यज्ञ में प्राणों की आहुति दे रहा हूं। उत्तर में रामरखी के नेत्रों से अश्रुप्रवाह फूट निकला। श्वास-प्रश्वास सिसकियों में बदल गये। हिचकियां हृदय पर आघात करने लगीं।धीमी चीत्कार के साथ, रात चौथे पहर कालकोठरी का दरवाजा खुला। काले कपडों में लिपटे भाई बालमुकुंद ने चौकौर पत्थरों के बने आंगन में दृष्टि दौडाई। पीतालस चंद्ररुदन कर रहा था, चांदनी कफन बन जाने को व्याकुल हो रही थी। भरपेट सांस लेकर उन्होंने सदा के लिये मुंह घुमा लिया। क्रांति के गीत झनकारती हथकडियां और बेडियां फांसी घर में पहुंचते ही मौन हो गयीं। फंदे की कसावट बढी और तब तक बढती रही जब तक वे भारत माता की गोद में सदा-सर्वदा के लिये सो नहीं गये। जेल के फाटक पर कुटुम्बीजनों के साथ रामरखी सारी रात पतिदेव की आत्मा की शांति के लिये ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं। भोर होते ही हवन होने लगा। चिता के लिये लकडियां एकत्रित की जाने लगीं। चर्चा होने लगी-भाई बालमुकुंद का दाह-संस्कार होगा। रामरखी की चेतना लौटी, सोचा-प्राणनाथ का अंतिम दर्शन करूंगी। वे यह सोच ही रही थीं। तभी एकत्रित भीड में भुनभुनाहट होने लगी- भाई बालमुकुंद का शव नहीं मिलेगा। देवी रामरखी का रहा-सहा धीरज जाता रहा। अश्रुकोष रिक्त हो चुका था। कटी-फटी आंखें जेल की दीवारों पर अपना सिर धुनती रहीं। रोते-बिलखते उन्हें उसी अवस्था में उठाकर उनके परिजन घर लाये।शोक संतप्त रामरखी ने अन्न जल त्याग दिया और पति के समीप जाने का निश्चय कर एकान्त सेवन करने लगीं। बिना अन्न-जल के पंद्रह दिन बीत गये। सोलहवें दिन वे बोलीं-वह घडी सन्निकट है जब मेरे मनोरथ पूर्ण हो जायेंगे। घर के लोगों ने बहुतेरा समझाया किंतु वे किसी की न मानीं। वे निरन्तर पतिदेव के ध्यान में डूबी रहीं। भाई बालमुकुन्द की फांसी के बाद उन्होंने न एक दाना मुंह में डाला, न एक घूंट पानी ही पिया। इसी प्रकार अारह दिन बीत गये। उन्नीसवें दिन वे कोठरी से बाहर आयीं। शुद्ध जल से स्नान किया, स्वच्छ वस्त्र पहने और आंगन में पल्थी लगा कर बैठ गयीं। नेत्र बंद थे। हाथों की हथेलियां गोद में थीं। उसी स्थिति में उन्होंने प्राणों को खींचा और क्षणमात्र में वे अनन्तकाल के लिये पतिदेव के वामांग में जा विराजीं।स्वजन-परिजन सहस्त्र कंठ हो पुकार उठे- आज भाई बालमुकुंद की पत्नी सती हो गयीं। छाती फुलाकर नेताओं ने आवाज दी- क्रांतिकारी की पत्नी ने अपने जीवन को क्रांति की उपासना में उत्सर्ग कर दिया।

Leave a Reply